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हिंदी दिवस विशेष : पुष्पेंद्र चौहान का भाषाई संघर्ष

प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को पूरे देश में हिंदी प्रेमियों द्वारा हिंदी दिवस मनाया जाता है. देश के लगभग 77 फीसदी लोग बोलचाल के लिए हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं. बहुत से लोगों के लिए हिंदी रोजगार का ज़रिया भी है. लेकिन हिंदी प्रेमी को आज पुष्पेंद्र चौहान के भाषाई शाघर्ष को जानना चाहिए.

पुष्पेंद्र चौहान का भाषाई संघर्ष
पुष्पेंद्र चौहान का भाषाई संघर्ष

पुष्पेंद्र चौहान एक ऐसी शख्सियत हैं, जिन्होंने 37 साल पहले भारतीय भाषा आंदोलन का बिगुल बजाया था. पुष्पेंद्र चौहान ने हिंदी को सम्मान दिलाने के लिए विश्व का सबसे लम्बा भाषाई आंदोलन खड़ा किया. इसका असर यह हुआ कि बार कौंसिल ऑफ इंडिया को वकालत के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करनी पड़ी. (यू पी एस सी) संघ लोक सेवा आयोग के कार्यालय से देश की संसद तक हिंदी की गूंज पहुंचाई. इस आंदोलन के समर्थन में पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह के नेतृत्व में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपई व विश्वनाथ प्रताप सिह, उपप्रधानमंत्री देवीलाल व लालकृष्ण आडवाणी तथा चतुरानंद मिश्र सहित 4 दर्जन सांसदों ने भारतीय भाषा आंदोलन के समर्थन में संघ लोक सेवा आयोग के द्वार पर अखिल भारतीय भाषा संरक्षण समिति के धरने में कई घण्टों तक भाग लेकर समर्थन दिया था. पुष्पेंद्र चौहान ने प्रण ले रखा है कि जब तक देश से अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त नहीं होगा और देश की शिक्षा, परीक्षा और शासन प्रशासन में भारतीय भाषा लागू नहीं होगी, तब तक वे चैन से नहीं बैठेंगे.

कैसे संघर्ष का कारण बना---
उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में पाली गांव के रहने वाले एक साधारण से किसान परिवार में जन्में पुष्पेंद्र चौहान ने वर्ष 1987 में गाजियाबाद के एम.एम.एच कॉलेज से एल.एल.बी करने के बाद वह वकालत करने दिल्ली पहुंचे थे. उन्होंने एल.एल.बी हिंदी माध्यम से की थी. जिसके बाद उन्होंने दिल्ली बार काउंसिल में पंजीकरण के लिए फार्म भर दिया. वकालत का माध्यम हिंदी भरा था, जिस पर शायद क्लर्क की नजर नहीं पड़ी. उसने पंजीकरण शुल्क लेकर रसीद काट दी. पुष्पेंद्र ने आश्वस्त होने के लिए पूछ ही लिया कि हिंदी माध्यम से वकालत करने में कोई परेशानी तो नहीं. क्लर्क एकदम चौंका. फार्म दुबारा देखा. गलती समझ में आ गई. मामला बार काउंसिल के सचिव के पास पहुंचा. उन्होंने क्रोधित होकर पुष्पेंद्र का फार्म फेंक दिया और बोले, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हिंदी में आवेदन करने की. बार कौंसिल द्वारा अंग्रेजी की स्वीकारिता ना मानने पर रजिस्ट्रेशन स्वीकार नहीं किया गया. इसपर पुष्पेंद्र भौंचक्के रह गए. ऐसा लगा जैसे किसी ने उनके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया हो. फार्म फेंके जाने से जो अपमान महसूस हुआ. वही इस सबका मूल था। जिस तरह गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से उतार देने पर संघर्ष की प्रेरणा मिली थी. वैसे ही पुष्पेंद्र ने संघर्ष की ठान ली. अपनी मातृभाषा के अपमान पर किसान के इस बेटे ने यहीं से संघर्ष शुरू किया.

कैसे आंदोलन की शुरुआत---
पुष्पेंद्र चौहान ने अंग्रेजी टेस्ट की छूट के लिए दिल्ली के वोट क्लब पर धरना शुरू कर दिया. मामला संसद में उठा. उस वक्त के तत्कालीन कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज से मुलाकात हुई. आमरण अनशन का एलान हुआ. धरना रंग लाया और बार कौंसिल ऑफ इंडिया ने अंग्रेजी टेस्ट की अनिवार्यता हटा दी गई. यह हिंदी की जीत थी और गांव से दिल्ली गए किसान के बेटे का संघर्ष रंग लाया था.

कीमत चुकानी पड़ी थी---
यदि आपने 29 अक्टूबर 1995 का कोई सा भी हिन्दी का अखबार पढ़ा होगा तो संभवतः आपको पुष्पेंद्र चौहान का नाम याद होगा, पुष्पेंद्र चौहान ने विज्ञान भवन में तत्कालीन  राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा के भाषण के बीच भारतीय भाषाओं के प्रति सरकार के सौतेले व्यवहार की बात उठाई थी. राष्ट्रपति मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद के स्वर्ण जयंती समारोह में जब यह कह रहे थे कि प्रतियोगी परीक्षाएं हिन्दी में होनी चाहिए, तभी पुष्पेंद्र ने अपने स्थान से उठकर कहा कि इस बारे में तो स्वयं ही केंद्र सरकार को निर्देश दे चुके हैं और सरकार इस निर्देश की उपेक्षा कर रही है लेकिन पुष्पेंद्र को यह सब कहने को कीमत चुकानी पड़ी. विज्ञान भवन में तैनात सुरक्षाकर्मियों ने तत्कालीन राष्ट्रपति के रोकने के बावजूद पुष्पेंद्र की पिटाई की और उन्हें इतना मारा कि वह बेहोश हो गया. बाद उन्हें गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया.

क्यू लोकसभा में लगाई छलांग----
संघ लोक सेवा आयोग में भाषाई धरने के जनक पुष्पेंद्र चौहान बताते हैं कि पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह ने धरने में पहुंचकर पुष्पेंद्र की मांग को जायज बताते हुए हौसला अफजाई की. 11 दिसंबर 1988 को 175 सांसदों और सिंतबर 1989 में 350 सांसदों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को ज्ञापन देकर पुष्पेंद्र की मांग का समर्थन किया. सितंबर 1990 में देश के साढ़े चार सौ से अधिक सांसदों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को ज्ञापन सौंप पुष्पेंद्र की मांग मानने का अनुरोध किया. आश्वासन मिला, मगर मांग पूरी नहीं की गई. मांग पूरी न होने पर पुष्पेंद्र 10 जनवरी 1991 को संसद में दर्शक दीघा (दर्शक गैलेरी) से सदन में छलांग लगाकर दुनिया भर का ध्यान अपनी ओर खींचने में सफल रहे. हालांकि छलांग लगाने में उनकी कई पसलियां टूट गई उनकी जान पे बन आई और मुकदमा भी दर्ज हुआ.

आंदोलन के साथियों का मत--- 
भारतीय भाषाओं के लिए संघर्षशील और आंदोलन का प्रमुख हिस्सा रहे हरपाल सिंह राणा का कहना है. पुष्पेंद्र चौहान का भाषाई संघर्ष अकल्पनीय है. बावजूद इसके आज तक देश में भारतीय भाषाओं में शिक्षा, रोजगार, न्याय, शासन व सम्मान नहीं मिलता. पूरे तंत्र पर अंग्रेजों के जाने के 75 वर्षो बाद भी अंग्रेजों की ही भाषा अंग्रेजी का राज चल रहा है. तो आंदोलन का हिस्सा रहे बागपत के हिंदी प्रेमी देवेंद्र भगत जी बताते है पुष्पेंद्र चौहान के भाषाई संघर्ष को हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के विकास के लिए देश में प्रमुख नायक के रूप में देखा जाएगा. जब भी हिंदी के संघर्ष का जिक्र आएगा उन्हे याद जरूर किया जाएगा. वही खादी ग्राम आयोग के पूर्व निदेशक और वर्तमान में एंनटरप्रेन्योर टाइम्स पत्रिका के प्रबंध संपादक डॉ बीआर चौहान बताते है कि 1990 के आसपास यूपीएसई भवन से गुजरते वक्त धरने में जाना हुआ तब से पुष्पेंदर चौहान के भाषाई आंदोलन से जुड़ा, वे ईमानदार, निडरता और संघर्ष की एक जीती जागती मिसाल है. मैं उन्हे बड़ा गांधीवादी मानता हूँ.

क्या कहते है पुष्पेंद्र चौहान ---
पुष्पेंद्र चौहान का कहना है हमारा विरोध अंग्रेजी से नही बल्कि अंग्रेजी थोपे जाने से है. किसी योग्य व्यक्ति को अंग्रेजी न आने पर नकार दिया जाय तो आजादी की 75वीं सालगिरह मनाने वाले हमारे देश के लिए यह दुखद स्थिति है. उनका कहना हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को मातृभाषा पर गर्व होना चाहिए. भारतीय भाषा आंदोलन के कर्णधार पुष्पेंद चौहान कहते है कि भाषाई संघर्ष जारी है. मुहिम को मुकाम तक ले जाने के लिए फिर संघर्ष करेंगे.


Published: 13-09-2022

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