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गुलाम नबी आजाद ने जो कहा : वो एकदम गलत भी नहीं

गुलाम नबी आज़ाद ने एक कर्मठ राजनीतिज्ञ होने का परिचय देते हुए, उचित पत्र भी लिखा और मौजूदा पार्टी में तानाशाही, चापलूसी और गुंडातत्वों के अविवेकी उपयोग को ध्यान में रखते हुए अपनी मर्यादा अनुसार इस्तीफ़ा द्वारा अपने विषय को बल भी दिया. ध्यान देना आवश्यक है कि अभी तक गुलाम नबी जी के इस्तीफे पर पार्टी की वर्किंग कमेटी में कोई चर्चा होने की खबर नहीं आई है.

वो एकदम गलत भी नहीं
वो एकदम गलत भी नहीं

विनोद शर्मा जी की आखिरी टिप्पणी, राहुल गाँधी को दी गई नसीहत, निश्चय ही बहुत सटीक है, परंतु पत्रकारिता की हालिया शैली में अपनी बात का वजन ख़ास कानों के लिए  कर्ण प्रिय बनाने हेतु, एक-आध सफेद झूठ बोलकर दर्शकों को बरगलाने का दायित्व जो उन्होने निभाया, उसका विश्लेषण अनिवार्य हो गया है.

गुलाम नबी आज़ाद की नसीहतों को और उनके द्वारा पार्टी छोड़ने की भर्त्सना, तथा इन दोनो घटनाओं को तोड़-मरोड़कर पेश करना, कॉंग्रेस के अंदर के वर्तमान सत्ता पक्ष को खुश रखने का तरीका मात्र है.

विनोद शर्मा कॉंग्रेस को भली भाँति जानते हैं, दशकों तक देखा है. वो यह बात कैसे भूल गए कि कॉंग्रेस वर्किंग कमेटी के आखिरी स्वतंत्रता सेनानी सदस्य और उस समय के डिसिप्लिनेरी ऐक्शन कमेटी के चेयरमैन, वयोवृद्ध कॉंग्रेसी जी. वेंकटस्वामी को किस प्रकार पार्टी से निष्कासित किया गया था, जब उन्होंने राहुल को एक बहुत साधारण सी नसीहत देने की हिमाकत की थी.

जो कुछ गुलाम नबी आज़ाद ने अपने पत्र में लिखा है, उससे कम लिखने से भी पार्टी सुधार का लक्ष्य नहीं साधा जा सकता था. दूसरी तरफ, इतना कहने के बाद उनका पार्टी में बने रहना भी संभव नहीं था. डेढ़ दशक पहले घटित वेंकटस्वामी प्रकरण और हाल में कपिल सिबल के साथ घटित घटनाक्रम, दोनो ही इस आंकलन की पुष्टि करते हैं. जिस प्रकार कॉंग्रेस-कॉरेसपॉंडेंट से वरिष्ठ संपादक बनने की यात्रा में विनोद शर्मा जी के लिए, अपने पेशे की विशेष आंतरिक संवाद शैली / कम्यूनिकेशन स्किल्स सीखने की बाध्यता थी, जैसा कि उन्होंने स्वयं वर्णन किया; ठीक उसी प्रकार राजनीतिज्ञों को भी अपने कार्यक्षेत्र की संवाद शैली को अपनाना पड़ता है. साथ ही अपने निश्चय और विषय को प्रबल बनाने हेतु तर्कसंगत आचरण का भी परिचय देना पड़ता है.

गुलाम नबी आज़ाद ने एक कर्मठ राजनीतिज्ञ होने का परिचय देते हुए, उचित पत्र भी लिखा और मौजूदा पार्टी में तानाशाही, चापलूसी और गुंडातत्वों के अविवेकी उपयोग को ध्यान में रखते हुए अपनी मर्यादा अनुसार इस्तीफ़ा द्वारा अपने विषय को बल भी दिया. ध्यान देना आवश्यक है कि अभी तक गुलाम नबी जी के इस्तीफे पर पार्टी की वर्किंग कमेटी में कोई चर्चा होने की खबर नहीं आई है, न ही कॉंग्रेस पार्टी की तरफ से उनके इस्तीफ़े की स्वीकृति की कोई औपचारिक घोषणा हुई है.

कॉंग्रेस हित में, अभी भी समय है मिल बैठकर हल निकालने के लिए. कॉंग्रेस के मर्म से अपरिचित चापलूस और चाटुकार तत्व तथा विदेशी एजेंसियों के नुमाइन्दो के बर्गलाने वाले बयानों से बचना ज़रूरी है, कॉंग्रेस हित और राष्ट्रहित में. इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि जो बातें गुलाम नबी आज़ाद ने अपने पत्र में कहा, ठीक यही विचार सैकड़ों जिला कॉंग्रेस कार्यालाओं में चर्चा का विषय बनी रही है. अंततः एक वरिष्ठ पार्टी नेता ने वर्करों के विचार की अभिव्यक्ति करने का साहस किया. यह जानते समझते हुए कि इसका उन पर क्या असर होगा.

एक विषय और, पत्रकारों द्वारा असत्य का प्रचार यदि ग़लती से हो जाय, तो वह उनकी कार्यकुशलता पर टिप्पणी है. यदि जानबूझकर किया जाय तो उनके पत्रकारिता-परायणता पर सवाल खड़े हो सकते हैं. कहा गया कि 2004 में चुनाव में आने वाले नतीजों के बारे में कौन जानता था ? मानो किसी को मालूम नहीं था.
कम से कम पत्रकार मंडली को तो इस बारे में जानना और याद रखना चाहिए कि 2004 के लोक सभा चुनावों के नतीजे आने से दो दिन पहले कॉंग्रेस अध्यक्षा ने वरिष्ठ संपादकों को आमंत्रित कर चुनाव नतीजों पर विचार विमर्श किया था.

इस बैठक में डॉक्टर जेनेन्द्र कुमार जैन ने कॉंग्रेस के लिए 146-148 सीटों पर जीत के आंकलन की बात सामने रखा था, एक सूची भी पेश की थी. कई वरिष्ठ पत्रकारों ने उनके इस आंकलन का मज़ाक उड़ाया था. कुछ नौकरीपेशा पत्रकारों ने मीडिया-मालिक संपादकों पर व्यंग भी कसा. जब नतीजे आए और डॉक्टर जैन द्वारा प्रेषित सूची से मिलान किया गया, तब कॉंग्रेस अध्यक्ष ने भारतीय जनता पार्टी के इस संस्थापक सदस्य डॉक्टर जे.के. जैन को निमंत्रित कर कॉंग्रेस पार्टी और अखिल भारतीय कॉंग्रेस कमेटी दोनो में सदस्यता भी प्रदान किया था. इस कहानी को उल्लिखित करने का तात्पर्य है यह बताना कि पत्रकारों की सीमित नज़र और टेलीविज़न के व्याख्यान से पृथक भी राजनीति होती रहती है.

गुलाम नबी आज़ाद कॉंग्रेसी थे और कॉंग्रेसी हैं, उन्हें अंततः कॉंग्रेस पार्टी में रहना अथवा वापस आना है. उनका इस्तीफ़ा कुछ उसी प्रकार का है, जैसा एक समय दिवंगत अर्जुन सिंह जी और नारायण दत्त तिवारी जी के इस्तीफ़े थे; सबको मालूम था की एक ना एक दिन वे पार्टी में वापस आएँगे.

हालिया इतिहास में, 23 साल पूर्व, कॉंग्रेस कार्यालयों में काबिज किरानियों के केरल-माफ़िया और उन्हें बल प्रदान करने वाले रोमन कैथोलिक क्रिस्तान चर्च ने शरद पवार, दिवंगत पूर्णों संगमा और तारीक़ अनवर जैसे दिग्गज कॉंग्रेसी नेताओं को पार्टी से निष्कासित कर पार्टी के राष्ट्रव्यापी आधार को गहरा नुकसान पहुँचाया था. इनके गुण्डों ने दादा मुखर्जी को ए.आई.सी.सी. अधिवेशन-स्थल तालकटोरा स्टेडियम के बाहर एक काँटेदार झाड़ पर फेंक कर लहू-लुहान भी कर दिया था. आज ये लौबियां पार्टी में और भी मजबूत हो गईं हैं, परंतु इससे पार्टी लगातार और कमजोर हो गई है.

1999 की परिस्थिति अलग थी, तब सोनिया जी और परिवार की मुट्ठी बहुत कुछ बंद थी, पार्टी कार्यकर्ता और नागरिक उन्हें समझ-परख नहीं सके थे, उम्मीदें बहुत थीं. आज परिस्थिति बहुत भिन्न है: पार्टी कार्यकर्ता और देश की जनता, दोनो ही परिवार से, उनके सोच और उनके कार्य शैली से भली-भाँति परिचित और अवगत हैं. ओहदा बड़ा होने के बावजूद, आज के के.सी. वेणुगोपाल 1999 के विंसेंट जौर्ज नहीं हैं. और याद रहे कि उस हथकंडे के बाद विंसेंट जौर्ज की भी रवानगी हो ही गई थी.

कॉंग्रेस सुधार के लिए जो ज़रूरी था, वह घटित हो चुका है. अब देखना यह है कि मौजूदा कॉंग्रेस अध्यक्ष सोनिया जी और उत्तराधिकारी उनके पुत्र राहुल गाँधी अपने आज तक के अनुभव और इस मौजूदा प्रकरण से कितना सीख पाएँ हैं. स्वयं को नेतृत्व के प्रति, उसी नेतृत्व से भी ज़्यादे वफ़ादार साबित करने की होड़ में लगे चापलूस चाटुकारों की प्रतिक्रिया नहीं, अपितु इन दोनों — सोनिया जी एवं राहुल — की प्रतिक्रिया क्या होती है, पार्टी के कार्यकर्ताओं एवं वोटरों को इसका इंतज़ार है.

https://www.youtube.com/watch?v=ejYQ_xcEfw0 // August 29, 2022.

(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)


Published: 31-08-2022

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