महर्षि विश्वामित्र का राजनैतिक सूत्र
रामकथा में धनुषयज्ञ एक महत्वपूर्ण प्रकरण हैं जिसने उस युग की दो महान विभूतियों, सीता और राम का एकीकरण कर सीयराम का संश्लेषण किया गया ; सीयराम मय सब जग जानू. जिसने रामायणकालीन युग को एक नई दिशा दी. उस युग में एक नए सांस्कृतिक संरचना की नीव रखी. इस सम्बन्ध में मेरी कल्पना में कुछ भाव उभरे.
उस युग में शक्ति के कई केंद्र थे ; देवराज इंद्र के नेतृत्व में देवगण जो राक्षसी संस्कृति के उत्थान से श्रीहत था. ऋषि संस्कृति से पोषित अयोध्या के राजा दशरथ और मिथिला के राजा जनक. दक्षिण में राक्षसी संस्कृति के राक्षसराज रावण तथा वानर संस्कृति के किष्किंधा के वानरराज बाली. उपभोगितावादी भौतिकवादी संस्कृति के पोषक राक्षसों की शक्ति में वृध्दि हो रही थी. ऋषि संस्कृति हतप्रभ थी. ऋषियों की संताने ही राक्षसी संस्कृति को अंगीकार करते जा रहे थे. मानवता के समक्ष एक भयंकर संकट उत्पन्न हो रहा था. ज्ञान के केंद्र विध्वंस किये जा रहे थे. ऐसे में दक्षिण में अगस्त्य मुनि और उत्तर में मुनि विश्वामित्र ऋषि संस्कृति को संजीवनी देने के लिए प्राणप्रण से तत्पर थे.
मुनि विश्वामित्र को दशरथ नन्दन राम के रूप में एक धीरोदात्त जननायक मिल गए थे जिन्होंने सहर्ष राक्षसों से ऋषियों के यज्ञ की रक्षा का व्रत लिया. उसी समय मिथिला के राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता के स्वयम्बर के लिए पिनाक धनुष की प्रत्यंचा चढाने की शर्त रख दी. पिनाक धनुष कोई साधारण सा धनुष नहीं था. यह शिव धनुष आधुनिक आणविक शस्त्र की भांति एक महान शक्तिशाली प्रलयंकारी शस्त्र था. भगवान शिव विश्व के आदि वैज्ञानिक गुरु समस्त ज्ञान विज्ञान के प्रणेता आदि कुलपति थे. हर युग के महान ज्ञानियों, शस्त्र शास्त्र के शीर्षस्थ मनीषियों के आराध्य भगवान आशुतोष शिव ही रहे हैं. पिनाक को भगवान शिव ने परशुराम को दिया था. परशुराम ने इसे राजा जनक के पूर्वज राजा निमि के भाई देवरथ के यहाँ रख दिया था. यह शिव धनुष पिनाक राजा जनक के पूर्वजों की परंपरा में एक पूजनीय धरोहर के रूप में महल में विराजमान रहा. इसकी क्षमता तथा कार्यविधि के सञ्चालन से उस युग के थोड़े से ही लोग परिचित रहे. परशुराम के अतिरिक्त महर्षि वाल्मीकि और मुनि विश्वामित्र ही पिनाक से भली प्रकार परिचित थे. रावण और बाणासुर ने केवल इसके सम्बन्ध में सुना भर था इसके बारे में बहुत कुछ जानते नहीं थे.
महर्षि वाल्मीकि धरती पर कुलपतियों के कुलपति थे. वैज्ञानिक ऋषि महर्षि भारद्वाज उनके शिष्य थे. महर्षि वाल्मीकि के आश्रम भारत में कई स्थानों पर स्थित थे. भयंकर अकाल के दौरान किसी असहाय ने अपनी कन्या को वाल्मीकि आश्रम में रख दिया. यही भूमिजा सीता हैं जिसका लालन पालन और शिक्षा दीक्षा वाल्मीकि द्वारा की गई. सीता ज्ञान की पुंज थी, कृषिशास्त्र की विशेषज्ञ. वाल्मीकि ने सीता को तमाम ज्ञान विज्ञान के साथ शिव धनुष पिनाक का भी ज्ञान दिया. राजा जनक वाल्मीकि जी के आश्रम में आते रहते थे. निसंतान थे. अपनी पुत्री के रूप में ऋषि से सीता को मांग लिया.
महल में रखे पिनाक को सहज भाव से एक हाथ से उठाकर दूसरे हाथ से उसके स्थान को लीपते दैवयोग से जनक ने सीता को देख लिया. राजा जनक हतप्रभ हो गए. जिस धनुष को बड़े बड़े वीर खिसका भी नहीं पाते थे. उसे सीता ने सामान्य रूप से उठा लिया है. अपने अंतरंग ऋषियों, आमात्यों से चिंतन मनन के उपरान्त उन्होने निश्चय किया कि सीता स्वयम्बर का आयोजन किया जाए जिसमे यह शर्त रखी जाए कि जो शिव धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा देगा सीता उसी के गले में जयमाल डालेंगी.
मिथिला के सूतगण और भाटगण देश देश में इसके प्रचार में जुट गए. विश्वामित्र मुनि को जब इसकी जानकारी मिली और राजा जनक का आमंत्रण मिला तो वे मंथन करने लगे कि कैसे शक्ति के दो केंद्र अयोध्या और मिथिला का समन्वय हो. राजा जनक रागद्वेष से परे एक केंद्र हैं पर शक्ति के दूसरे केंद्र राजा दशरथ की लोक प्रतिष्ठ में दो कारणों से ह्रास हुआ था. एक, दशरथ के मित्र देवराज इंद्र ने राजा जनक के गुरु गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ दुराचार किया था. दूसरे ऋषि पुत्र श्रवण कुमार की अनजाने में हत्या. दशरथ की कीर्ति प्रताप में इससे ह्रास हुआ. अभी दशरथनन्दन राम की कीर्ति लोक में व्यापक नहीं हो पाई थी जिससे दशरथ की कीर्ति में श्रीवृद्धि हो. महर्षि विश्वामित्र के चिंतन में एक बात आई. राजा जनक न तो आदरपूर्वक दशरथ को आमंत्रित करेंगे और न ही राजा दशरथ अपने पुत्रों सहित यज्ञ में सम्मिलित होने की पहल करेंगे.
मुनि विश्वामित्र की धारणा थी की अयोध्या और मिथिला के एकीकरण से ही ऋषि पोषित मानव संस्कृति चेतनशील और प्रभावी होकर राक्षसी संस्कृति से संघर्ष कर सकेगी. मुनि की चिंता थी की ज्ञान की पुंज सीता और महाशक्ति पिनाक किसी कुपात्र के हाथ न लग जाए. विश्वामित्र ने अपनी चिंतना में राम को भी समिल्लित किया. राम को उन्होंने पिनाक के सारे रहस्य बताये. उस युग की समस्त राजनितिक परिस्थिति का मंथन किया. राम विश्वामित्र के विचारों से सहमत हुए और धनुष यज्ञ में सम्मिलित होने को तैयार हुए. इस दिशा में उनका पहला कदम हुआ जड़वत मुनि पत्नी अहिल्या के आश्रम में जाना और अहिल्या को समाज की मुख्यधारा में लाना. लोक में इसकी प्रशंसा हुयी. पिनाक के सम्बन्ध में राम ने अपना मत व्यक्त किया था कि विश्वशांति के लिए पिनाक जैसे प्रलयंकारी अस्त्र का निरस्त्रीकरण आवश्यक है. राक्षसी शक्ति का विनाश लोक चेतना से होगा जिसके लिए ऋषियों के आशीर्वाद की आवश्यकता है. प्रयलंकारी अस्त्र की नहीं. विश्वामित्र की नीति के फलस्वरूप विदुषी सीता का पाणिग्रहण राम से हुआ. मिथिला अयोध्या का समन्वय हुआ, पिनाक जैसे शस्त्रों की खोज पर विराम लगा जिसे दानव राक्षस युगों से खोज रहे थे.
धनुषयज्ञ यही कारन होइ
सीयाराम मय सब जग जानी
करहु प्रणाम जोरि जुग पाणि