समाजरूपी शरीर के चार अवयव
पुरुष सूक्त के अनुसार समाजरूपी शरीर के चार अवयव माने गए हैं. ब्राह्मण अर्थात तत्वज्ञानी, पुरोहित, मनीषी, विद्वान्, मार्गदर्शक श्रेणी के लोग मुख हैं. क्षत्रिय समाज की भुजाएं जो समाज का रक्षक, शासन अनुशासन नीति के अनुसार स्थापित करने वाला. वैश्य अर्थात कृषक और व्यापारी भरण पोषण का उत्तरदायित्व निभाने वाला उदर है. शूद्र अर्थात सेवक, कर्मचारी वर्ग, कार्यपालिका तथा समाजसेवक पांव है जिससे समाज चलायमान रहता है. एक बायोलॉजिक शरीर की भांति समाज के चारों अवयव परस्पर जुड़े रहने पर ही अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकते हैं. मुख,बाहु, उदार, पांव आइसोलेटेड सिस्टम नहीं हैं. सब परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, सहायक और आश्रित भी हैं.
मुख से पांव का महत्त्व अधिक है. यदि पांव अशक्त हो जाये, उसे फालिज मार दे तो सारे शरीर का कार्यव्यापार अपंग हो जाएगा. समाज पंगु हो जाएगा. पुरुष सूक्त में ही कहा गया है-पादोस्य विश्वा भूतानि, अर्थात संसार के सारे प्राणी एक पाद में हैं, तो मानव मानव में भेदभाव की कल्पना व्यर्थ है. यही नहीं पुरुष सूक्त में ही उल्लेख है-पादाभ्यां भूमि-पृथ्वी की उत्पत्ति उस पुरुष के पांव से हुई है जो चराचर की जननी है. माता भूमिः पुत्रोहम पृथिव्याः। परम पुरुष नारायण के चरण कमल से ही गंगा भी निकली हैं-गंगावारि मनोहारि मुरारि चरणाच्युतं। इस प्रकार शास्त्रों के अनुसार सनातन संस्कृति में गंगा, पृथ्वी और शूद्र सहोदर हैं और पूज्य हैं. शूद्र कुलोत्पन्न महाकवि शिंग भूपालदेव ने स्वाभिमान की अभिव्यक्ति के साथ रसार्णव सुधाकर में लिखा है-
तस्य पदाम्बुजाजन्तो वर्णो विगत कल्मषः
यस्य सोदरतां प्राप्तं भगीरथ तपः फलं
अर्थात उस परम पुरुष के चरण कमल से निष्कलुष वर्ण-शूद्रवर्ण निकलकर, भगीरथ प्रयत्नों से उसी चरण कमल से निकली गंगा से सहोदरता पाई. चरणोद्भूत होना हीनता का प्रतीक नहीं है. पाणिनि ने जब वेद की कल्पना शरीर के रूप में की तो छंद शास्त्र को इसका पांव बताया. ऋग्वेद में कहा गया है-अ ज्येष्ठास अकनिष्ठास एते /सं भ्रातरः वावृध सौभागाय-अर्थात तुमसे न तो कोई बड़ा है न कोई छोटा अतः तुम सब मिलकर सौभाग्य के लिए बढ़ो.
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