फिर संघर्ष करेंगे पुष्पेंद्र चौहान
हिंदी के लिए कामयाब लड़ाई लड़ने वाले पुष्पेन्द्र चौहान मुहिम को मुकाम तक ले जाने के लिए फिर संघर्ष करेंगे. पाली गांव के किसान परिवार में जन्में पुष्पेंद्र चौहान बताते हैं कि साल 1987 में गाजियाबाद के एमएमएच कॉलेज से एलएलबी करने के बाद वह वकालत करने दिल्ली गए थे. एलएलबी हिंदी माध्यम से की थी, जिस कारण दिल्ली बार कौंसिल ने उन्हें अंग्रेजी का टेस्ट देने के लिए कहा. उन्होंने टेस्ट से मना किया और बार कौंसिल ने रजिस्ट्रेशन से. मातृभाषा के अपमान पर किसान के इस बेटे ने यहीं से संघर्ष शुरू किया. अंग्रेजी टेस्ट की छूट के लिए वोट क्लब पर धरना शुरू कर दिया. रामकृष्ण विकल, कल्पनाथ राय जैसी शख्सियत ने संसद में मामला उठाया. कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज से मुलाकात हुई. आमरण अनशन का एलान किया. धरना रंग लाया और बार कौंसिल ऑफ इंडिया ने अंग्रेजी टेस्ट की अनिवार्यता हटा दी. यह हिंदी की जीत थी.
पुष्पेंद्र चौहान बताते हैं कि संघ लोक सेवा आयोग की जरिये देशभर के नौकरशाह चुने जाते हैं. उनकी मांग थी कि अंग्रेजी की अनिवार्यता वहां भी खत्म की जानी चाहिए. हिंदी के लिए उन्होंने करीब नौ साल लंबा संघर्ष किया. भारतीय भाषाओं की ओर संसद का ध्यान आकर्षित करने के लिए 10 जनवरी 1991 को दर्शक दीर्घा से लोकसभा में छलांग लगा दी थी. इसमें पसलियां टूट गई थी. अगले ही दिन संसद ने भाषा नीति संसदीय संकल्प पुन: पारित किया, लेकिन अमल अब तक नहीं हुआ.
पुष्पेंद्र चौहान कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को मातृभाषा पर गर्व होना चाहिए. कोई भी भाषा सीखने में बुराई नहीं है, लेकिन अंग्रेजी भाषा को जबरन थोपना गलत है.