उपजाऊ बनाने में जुटी भाजपा
भारतीय जनता पार्टी अपनी 42 साल की यात्रा के बाद आज केन्द्र में सत्ता में है और पूर्व, पश्चिम और उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों में उसके पैर मजबूती से जम चुके हैं। मगर दक्षिण भारत की सियासी जमीन कर्नाटक के अलावा उसके लिये आज भी दुर्गम और दुर्लभ है. इसीलिये कई वर्षों से दक्षिण के अभेद्य दुर्ग में प्रवेश के अटल इरादे के साथ भाजपा का नेतृत्व काम कर रहा है। हाल में ही राज्यसभा के लिए दक्षिण भारत की चार हस्तियों का मनोनयन, वहां के आदिवासियों का दिल जीतने के लिए राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू का चयन तो यही संकेत दे रहा है कि भाजपा दक्षिण की राजनीतिक जमीन को अपने लिए उपजाऊ बनाने में जुट गयी है.
वैसे ये कोई नंयी बात नहीं है सैकड़ों वर्षों से भारत में सत्ता की बागडोर उत्तर में ही केन्द्रित रही है लेकिन भौगोलिक परिस्थितियों और आज के जैसे आवागमन के साधन न होने के कारण दक्षिण भारत पर राज कर पाना बहुत मुश्किल ही रहा है। वर्तमान में आयें तो आजादी के बाद दक्षिण भारत में भी एक राज्य तमिलनाडु ऐसा रहा है जहां सत्तर साल तक देश पर हुकूमत करने वाली कांग्रेस भी सत्ता का मुंह नहीं देख सकी। दक्षिण भारत के चार राज्यों तमिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में से केवल कर्नाटक ही ऐसा रहा जहां 1977 में राज्य से कांग्रेस को बेदखल कर वो जनता पार्टी कदम रख पायी जिसमें वो जनसंघ भी शामिल थी जो आज भारतीय जनता पार्टी है। देश की तीन दिशाओं को साध लेने के बाद भाजपा की नजर अब दक्षिण पर है। कर्नाटक तो आज उसके पास है अब तमिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश और उस से अलग हुए तेलंगाना में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिये उसने अपने प्रयासों को तेज कर दिया है।
हैदराबाद में हुई भाजपा की नेशनल एक्जिक्यूटिव बैठक में इसका संकेत दे दिया गया है कि 2023 में होने वाले तेलंगाना विधानसभा चुनाव में भाजपा सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति के सामने जोरदार चुनौती पेश करने जा रही है। 2020 में हुए ग्रेटर हैदराबाद म्यूनिसिपल कारपोरेशन के चुनाव में ओवैसी की एआईएमआईएम और टीआरएस के दबदबे के बीच पांव रखने लायक जगह बनाने और दो उपचुनावों में कामयाबी हासिल करके भाजपा ने दक्षिण के इस मजबूत किले में दस्तक तो दे ही दी है। उस पर के चन्द्रशेखर राव की टीआरएस ने भी कांग्रेस को मुकाबले से बाहर करके एक तरह से भाजपा का काम आसान ही किया है। अब भाजपा की कोशिश कांग्रेस से खाली हुए राजनीतिक स्पेस को भरने की है। उसी तरह जैसे ममता बनर्जी ने बंगाल में कांग्रेस को साफ किया तो उस खालीपन को भर कर भाजपा 3 से 30 गुना बढ़ गयी।
कर्नाटक के बाद दक्षिण भारत के राज्यों में आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु भाजपा के लिये अभी इसलिये मुश्किल हैं क्योंकि दोनों जगह दो युवा चेहरे जगनमोहन रेड्डी और स्टालिन सत्ता में हैं। दोनों ही बड़े राजनेताओं की संतानें हैं और दोनों ही राज्यों में उनके क्षेत्रीय दलों ने मजबूती से जमीन पकड़ रखी है। केरल में भी पांव जमाने के लिये भाजपा को अभी कड़ी मेहनत करनी होगी। इन तीनों राज्यों में भाजपा और आरएसएस के अनुषांगिक संगठनों का निरंतर प्रयास जारी है। पर तेलंगाना में भाजपा को अगले साल ही मेहनत का फल मिलने की उम्मीद साफ दिखायी दे रही है। उसका संकेत तो 2019 के लोकसभा चुनाव परिणाम से मिल गया था जब भाजपा ने वहां से चार लोकसभा सीटें जीतीं थीं जिनमें एक सीट पर तो सुप्रीमो केसीआर की बेटी तक को पराजय का मुख देखना पड़ा था।
बेशक तेलंगाना की जनता लम्बे समय से हैदराबाद में ओवैसी खानदान के निजाम और केसीआर के दूसरे कार्यकाल में भ्रष्टाचार से थोड़ा असंतुष्ट नजर आ रही हो, परिवारवाद के कारण टीआरसी के सीनियर लीडरान में बंगाल और महाराष्ट्र्र की तरह बेचैनी नजर आ रही हो। उस पर नरेन्द्र मोदी का करिश्माई नेतृत्व हो फिर भी कोलकाता की तरह तेलंगाना भी भाजपा के लिये केकवॉक नहीं दिखायी दे रहा है। इसका कारण ये है कि ममता की तरह ही केसीआर का अपनी पार्टी और कैडर पर फुल कंट्रोल है और मुकाबले में भाजपा के पास ऐसा दमदार कोई क्षेत्रीय चेहरा नहीं है जो केसीआर को चुनौती दे सके। फिर भी भाजपा ने हैदराबाद को भाग्यनगर कह कर और गोलकुंडा के किले पर भगवा फहरा कर वर्तमान नेतृत्व को पंजों के बल खड़ा तो कर ही दिया है।
दक्षिण में भगवा लहराने को लेकर भाजपा के उत्साह की कई ठोस वजहें हैं। इनमें पहली तो ये है कि भाजपा दक्षिण भारतीय हिंदू रीति रिवाजों के सहारे हिंदुत्व को पुनर्परिभाषित करने की राह पर चल पड़ी है। यह नीति उत्तर भारत से अलग इसलिये है कि इसमें भाषाई विविधता को स्थान देने के लिये क्षेत्र विशेष की हिंदू पहचान पर फोकस किया जायेगा। इस संबंध में प्रधानमंत्री मोदी का भाषण इसलिये प्रासंगिक है क्योंकि उन्होंने जानबूझ कर हैदराबाद का नाम लेने के बजाय उसे भाग्यनगर कह कर संबोधित किया। यह भाजपा की सोची समझी रणनीति का अंग है क्योंकि हैदराबाद के मुस्लिम बहुल चारमीनार क्षेत्र से सटे भाग्यलक्ष्मी मंदिर को लेकर बीते दिनों में काफी राजनीतिक विवाद सामने आया है। भाजपा नेतृत्व का विचार है कि सरदार वल्लभ भाई पटेल की दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति के कारण हैदराबाद भारत का हिस्सा बना और उस विरासत को आगे बढ़ाना भाजपा अपना कर्तव्य मानती है।
याद रहे कि तमिलनाडु विधानसभा के चुनाव के समय फिल्मी सुपर स्टार रजनीकांत ने भी अपनी अलग पार्टी बना कर चुनावी समर में कूदने की योजना बनायी थी। स्वास्थ्य कारणों से ऐन समय पर वो पीछे हट गये पर राजनीति में आने की वजह पूछे जाने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि अब हमें राजनीति में आध्यात्मिक मूल्यों को शामिल करने पर विचार करना चाहिये। पेरियार आंदोलन के अभ्युदय के बाद से तमिल राजनीति में करुणानिधि, एमजीआर, जयललिता नास्तिकता के विचार को लेकर ही फलते फूलते रहे, पर अब ऐसा नहीं है। आज की तारीख में एक अध्ययन के अनुसार देश में 60 परसेंट से ज्यादा हिंदू यह मानने लगे हैं कि वो अपने धर्म की पहचान के कारण ही सच्चे भारतीय हैं। यहां यह सवाल उठाया जा सकता है कि यह भावना उत्तर भारतीयों की हो सकती है। दक्षिण भारतीयों की सोच भी ऐसी ही हो ये जरूरी तो नहीं। पर नहीं ऐसा नहीं है अब 42 परसेंट दक्षिण भारतीय हिदू भी इस बात से सहमत होते नजर आ रहे हैं कि सच्चा भारतीय होने के लिये हिंदू होना बहुत महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय पहचान के तौर पर हिंदी भाषा से भी अब उन्हें उतनी एलर्जी नहीं रही जैसी पहले हुआ करती थी।
पिछले कुछ चुनावों में भाजपा की परफॉरमेंस भी उसके लिये एड्रिनलिन का काम कर रही है। कर्नाटक में भाजपा मजबूत जड़ें जमा चुकी है। 2018 के विधानसभा चुनावों में 36 परसेंट वोट के सहारे 104 सीटें हासिल कर चुकी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में 51 परसेंट वोट शेयर के साथ 25 सीटें हासिल करना उसके लगातार वहां मजबूत होते जाने का पुष्ट प्रमाण है। ऐसा ही परिदृश्य तेलंगाना में नजर आया है जहां भाजपा चार लोकसभा सीटें पाने में कामयाब रही। बेशक ऐसी कामयाबी उसे तमिलनाडु या केरल में नहीं मिल सकी पर उसने अपने संगठनात्मक आधार को विस्तार दिया है। हैदराबाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पारित राजनीतिक प्रस्ताव में प्रस्तुत इस तथ्य को नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि तमिलनाडु के कारपोरेशन और पंचायत चुनाव में उसे मिली सफलता दक्षिण के दुर्गम किले में उसके बढ़ते कदम का सकारात्मक संकेत है।
एक और बात मार्के की ये है कि भाजपा ने जनसंध की पुरानी नीतियों से हट कर अपने संगठन को लचीला बनाने का प्रयास किया है। भाजपा ने अब अपने कोर कैडर के साथ ही क्षेत्र विशेष के ताकतवर नेताओं, बुद्धिजीवियों को अपने खेमे में शामिल करने की दिशा में भी काम करना शुरू कर दिया है। बस शर्त हिंदुत्व की विचारधारा से सहमति होना चाहिये। हिंदुत्व की विचारधारा में भी कुछ गढ़े सिद्धांतों पर अमल का दबाव नहीं है. इस नीति का पहला प्रयोग असम है जहां कांग्रेस से आये हिमंता विस्वसर्मा को मुख्यमंत्री बना कर किया और अब महाराष्ट्र में सबसे बड़ा दल होते हुए भी शिंदे के हाथों में सत्ता सौंप कर बड़ा दिल होने का सबूत पेश कर दिया है।
दूसरी ओर दक्षिण की क्षेत्रीय पार्टियों के अंदर गंभीर राजनीतिक, बौद्धिक संकट दिखायी पड़ रहा है। तमिलनाडु की द्रविड राजनीति में एक ठहराव साफ दिखायी देने लगा है। केरल के वामपंथी दल सामाजिक बदलाव का टिकाऊ फार्मूला पेश करने के मामले में जूझ रहे हैं। राष्ट्रीय दल कांग्रेस और जनता दल जो अब तक समावेशी सेकुलर फेडरल राजनीति के दम पर वहां जमे हुए थे, ऐसा लगता है उनमें भाजपा का विकल्प पेश करने का जोश ठंडा पड़ गया है। इन परिस्थितियों में पूरे भारत पर प्रभुत्व रखने के अभियान में भाजपा की प्रगति को केवल चुनावी सफलता से नहीं आंका जा सकता। पर आज की तारीख में देश भर में हिंदुत्व के प्रसार को अनदेखा नहीं किया जा सकता। बेशक भाजपा दक्षिणी राज्यों में अभी पूर्ण चुनावी सफलता हासिल करने की स्थिति में न हो पर हिंदुत्व के प्रसार ने वहां उसे एक गंभीर दावेदार के रूप में तो पेश कर ही दिया है।