व्यंग्य के निकष पर खरी रचनाएँ
व्यंग्य इन दिनों साहित्य के केंद्र में स्थापित है. कभी यह विधा अछूत-सी समझी जाती रही. व्यंग्य देखकर हिंदी के तथाकथित आलोचक मुँह फेर लिया करते थे. यही कारण था कि साहित्य विमर्श में व्यंग्य को गंभीरता के साथ नहीं लिया गया लेकिन समय बदला है, दृष्टि भी. अब व्यंग्य हमारे जीवन की आलोचना का एक सार्थक हथियार बन कर उपस्थित हो गया है. अनेक नये व्यंग्यकार भी प्रकट हो रहे हैं, जो व्यंग्य के मर्म को समझ कर सार्थक कर्म कर रहे हैं. ऐसे ही नये हस्ताक्षर का नाम है रामकिशोर उपाध्याय, जिनका पहला व्यंग्य संग्रह 'मूर्खता के महर्षि' मेरे सामने है.
पिछले कुछ वर्षों में वैसे तो अनेक तथाकथित व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हुए, जिनमें व्यंग्य के नाम पर केवल गहरी शून्यता के ही दर्शन हुए यानी वहां व्यंग्य नहीं था. केवल शीर्षक ही था व्यंग्य संग्रह लेकिन राम किशोर के पहले संग्रह में शुरू से लेकर अंत तक व्यंग्य-ही-व्यंग्य है. इसका सीधा अर्थ यह है कि लेखक ने व्यंग्य लिखने के पहले व्यंग्य साहित्य का गहन अध्ययन किया, उसका अभ्यास किया और उसके बाद व्यंग्य के क्षेत्र में वह उतरे. जो पहलवान पहले कुश्ती का अभ्यास करता है, उसमें निष्णात होता है, तब अखाड़े में उतरता है, तो उसे विजयश्री मिलती है. इस दृष्टि से मैं रामकिशोर उपाध्याय को व्यंग्य का ऐसा पहलवान कहूँगा, जिसने पूरी तैयारी के साथ व्यंग्य के अखाड़े में उतरने की कोशिश की. लेखक के आत्मकथा को पढ़कर भी उनकी व्यंग्य-दृष्टि का पता चलता है. रामकिशोर वैसे तो एक कवि के रूप में चिर-परिचित रहे ही हैं लेकिन अब उनका व्यंग्यकार वाला रूप भी लोगों को स्वीकार होगा क्योंकि संग्रह में शामिल सत्ताईस व्यंग्य, ग्यारह कविताएँ व्यंग्य के मानक पर खरी उतरती हैं. इस दृष्टि से मैं आश्वस्त हूं कि हिंदी व्यंग्य को एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार और मिल गया है.
समीक्ष्य संग्रह के लगभग समस्त शीर्षक ही उत्कृष्ट व्यंग्य का आभास कराने वाले हैं. जैसे, मोक्ष का गंगाजल, पहाड़ ऊँट के नीचे, आदमजात कुत्ते, स्टिंग का जुगाड़, इटली के रोगियो, सियासी गिरगिट, घोटाले की होली, बेईमानी का मौसम, मठाधीश तोता, मूर्खता के महर्षि और लोकतंत्र की सेल आदि. व्यंग्य के शीर्षक इसी तरह 'कैची' होने चाहिए ताकि पाठक पढ़ने के लिए बाध्य हो जाए. रामकिशोर की व्यंग्य कविताओं के शीर्षक भी आकर्षक हैं. जैसे, चुनाव आया है भैया, नचिकेता अभी जिंदा है, बस एक पेटपाल, ड्राइंग रूम के कोने, आज का महाभारत सुपोषण का शिकार, और झूठ कैक्टस आदि.
पहला व्यंग्य 'मोक्ष का गंगाजल' करुणा से उपजे व्यंग्य का श्रेष्ठ उदाहरण कहा जा सकता है, जिसमें कोरियर से आना है वाला गंगाजल समय पर नहीं आता और पिता की मृत्यु हो जाती है. अंत में पात्र मोहन सोचता है,'' पिताजी को मोक्ष तो सदकर्मों से मिल भी जाएगा और यह जल फिर किसी शर्मा या वर्मा जी के पिता या माता के काम आएगा क्योंकि गंगाजल कभी हमारे सिस्टम की तरह खराब नहीं होता.'' 'पहाड़ ऊँट के नीचे' नामक व्यंग्य में दफ्तरों में होने वाले ट्रांसफर- प्रमोशन के लिए उपयोग में लाई जाने वाली 'लिफाफा-संस्कृति' पर करारा व्यंग्य है. 'आदमजात कुत्ते' एक गहरा व्यंग्य उस मानवीय प्रवृत्ति पर है, जिसमें मनुष्य गाली-गलौज के लिए कुत्ते शब्द का इस्तेमाल करता है,जबकि कुत्ता तो वफादारी का प्रतीक है. 'होमो सेपियंस' रचना समाज की उस मानसिकता पर गहरा प्रहार है जो व्यक्ति की दाढ़ी मल को देखकर उसके धर्म का आकलन करने लगती है. इसलिए लेखक व्यंग्य के अंत में कहता है, " अरे,मैं तो जीव विज्ञान का छात्र हूँ, जहां प्राणियों का एक वर्गीकरण बताया गया था और उसमें मनुष्य को हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, अफ्रीकन, इंडियन, अमेरिकन, यूरोपियन नहीं बताया. सिर्फ होमो-सेपियंस कहकर पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों ने मान्यता दे दी वर्षों पहले.'' रचना अच्छी है पर लेखक को इसमें आए दो शब्दों की जानकारी ब्रैकेट में देनी चाहिए थी.
एक होमो सेपियंस, दूसरा हेल्यूसिनेशन । जो जानकार पाठक है उन्हें तो होमोसेपियंस का अर्थ पता है मानव जाति. दूसरे शब्द का अर्थ है विभ्रम. कई बार हमारे रचनाकार मित्र यह मानकर चलते हैं कि जिस शब्द की जानकारी उन्हें है, उसके बारे में हर पाठक को पता होगा, जबकि ऐसा नहीं है. रचना को सामान्य पाठक भी पढ़ते हैं, जो अनेक शब्दों के अर्थ नहीं जानते, इसलिए यह जरूरी होता है कि कम प्रचलित शब्दों के अर्थ साथ में दे दिए जाएं. 'सियासी गिरगिट' भी एक अच्छी रचना है. गिरगिट बोलते ही पाठक को समझ मे आ जाता है कि यह व्यंग्य उन लोगों को समर्पित है जो गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं. इस व्यंग्य में गिरगिट के कुछ प्रकार बतलाए गए हैं, जिसमें सियासी गिरगिट भी हैं तो साहित्य के गिरगिट भी, " जो सम्मान के बड़े भूखे होते हैं. यदि इन्हें मंच पर न बैठाया गया तो ये लोग जरूरी काम या सिर दर्द का बहाना करके खिसक जाते हैं. कार्यक्रम उबाऊ है, कह कर चुपचाप सोने चले जाते हैं." व्यंग्य 'लोकतंत्र का नंदनवन' लेखक की कुछ बड़ी व्यंग्यकथा है जिसमें उसने वन्यजीवों के माध्यम से पंचतंत्र शैली में आधुनिक समय की राजनीतिक कथा कही है.
कुल मिलाकर रामकिशोर उपाध्याय का पहला व्यंग्य संग्रह संभावनाओं से भरा है. संग्रह में और भी अनेक विमर्श योग्य व्यंग्य हैं,जिन पर टिप्पणी की जा सकती है. कुछ शीर्षकों का उल्लेख मैंने शुरू में किया है लेकिन समीक्षा की भी अपनी एक सीमा रेखा होनी चाहिए वरना समीक्षक भी व्यंग्य का पात्र बन सकता है. बहरहाल, उम्मीद है कि इस प्रौढ़ व्यंग्यकार के आने वाले संग्रह भी व्यंग्य साहित्य को समृद्ध करने में सहायक सिद्ध होंगे. इस समय व्यंग्य के नाम पर ज्यादातर अर्थहीन रचनाओं की भरमार हो रही है. ऐसे समय में व्यंग्य को गंभीरता के साथ समझने वाले लेखकों का मानो अकाल पड़ चुका है. ऐसे समय में 'मूर्खता के महर्षि' एक संभावना तो जगाता ही है कि व्यंग्य का भविष्य उज्ज्वल है.
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कृति : मूर्खता के महर्षि
व्यंग्यकार : रामकिशोर उपाध्याय
प्रकाशक : किताबगंज , राजस्थान
मूल्य : ₹ 200