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इन अपराधियों को : दंड कौन देगा, कब देगा ?

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंधे कानून की आड़ में देश के साढ़े 12 करोड़ छोटे एवं सीमांत किसानों के हितों की पीठ में छुरा मारने में न्यूज चैनलों ने किस तरह बढ़ चढ़ कर खालिस्तानी गुंडों का जमकर साथ दिया, उन्हें दंड क्यों नहीं मिलना चाहिए ?

दंड कौन देगा, कब देगा ?
दंड कौन देगा, कब देगा ?

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंधे कानून की आड़ में देश के साढ़े 12 करोड़ छोटे एवं सीमांत किसानों के हितों की पीठ में छुरा मारने में न्यूज चैनलों ने किस तरह बढ़ चढ़ कर खालिस्तानी गुंडों का जमकर साथ दिया, उन्हें दंड क्यों नहीं मिलना चाहिए ?

डेढ़ वर्ष पूर्व तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसान नेता की नकाब पहनकर सड़कों पर उतरे नेताओं को न्यूज चैनलों ने रातों रात नायक बना दिया था. शत प्रतिशत असफल राजनीतिक इतिहास वाले आधा दर्जन नेताओं को न्यूज चैनलों ने पूरे देश के किसानों की आवाज़, उनके प्रतिनिधि के रूप में लगातार 15 महीनों तक प्रस्तुत किया था. उत्तरप्रदेश और पंजाब के जनादेश ने डंके की चोट पर पूरे देश को यह बताया है कि 15 महीनों तक जो नेता किसानों की आवाज़, किसानों का प्रतिनिधि होने का दावा कर रहे थे, उन नेताओं का किसानों से कोई लेनादेना ही नहीं था. इन नेताओं का कृषि से जुड़ी समस्याओं एवं उनके समाधान से भी कोई सरोकार नहीं था. 21 मार्च 2022 को सार्वजनिक हुई सुप्रीमकोर्ट की विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट ने तथ्यों के साथ इस सच को देश के समक्ष प्रस्तुत कर दिया है.

फिर क्या कारण है कि लगातार 15 महीनों तक देश के दर्जनों न्यूज चैनलों के सैकड़ों एंकर, एडिटर, रिपोर्टर, इस सच को नहीं जान सके, इस सच्चाई को उजागर नहीं कर सके ? देश के न्यूज चैनलों से यह चूक असावधानीवश हुई थी, या किसी सोची समझी रणनीति का हिस्सा थी ? 15 महीनों तक ऐसी चूक लगातार होती रही, न्यूजचैनल तथाकथित किसान नेताओं का सच 15 महीनों तक नहीं जान सके. इस बात पर सहज विश्वास करना बहुत कठिन है.

न्यूज चैनलों के विद्वान एडिटर एंकर रिपोर्टर 15 महीनों तक यह क्यों नहीं समझ सके कि जिस भारत में लघु एवं सीमांत किसानों की संख्या 12.563 करोड़ है. जिस भारत देश 35 प्रतिशत किसानों के पास 0.4 हेक्टेयर से कम जमीन है, जो सालाना औसतन 8,000 रुपये कमाते हैं. जिस भारत में 69 फीसदी किसानों के पास एक और 87 फीसदी किसानों के पास दो हेक्टेयर से कम जमीन है, जिनकी सालाना औसतन 50,000 रुपये हैं. वो किसान टीवी, फ्रिज, म्युजिक सिस्टम, वाले एयरकंडीशंड टेंटों में बैठकर धरना नहीं देते. ये किसान पिज्जा, बर्गर, लच्छा पराठा, कबाब, बिरयानी, खीर, और रबड़ी जलेबी का नाश्ता कर के प्रदर्शन नहीं करते.

न्यूज चैनलों के विद्वान एडिटर एंकर रिपोर्टर 15 महीनों तक यह क्यों नहीं समझ सके कि जिस भारत में आर्थिक समस्या और संकट का शिकार होकर हजारों किसान आत्महत्या कर लेते हैं. उस भारत के किसान उपरोक्त पंचतारा जीवनशैली की कल्पना भी नहीं कर सकते. लेकिन एक दो दिन, या एक दो सप्ताह नहीं, बल्कि 15 महीनों तक इसी पंचतारा सुख सुविधाओं वाली दिनचर्या के साथ दिल्ली की सीमाओं पर किसान आंदोलन नाम का पाखंड खुलेआम हुआ. इस पाखंड पर उंगली उठाने के बजाए न्यूज चैनलों ने उसका महिमामंडन किसान आंदोलन कह कर ही किया. लगातार 15 महीनों तक किया. जबकि सच यह नहीं था. उत्तरप्रदेश और पंजाब के जनादेश तथा सुप्रीमकोर्ट की समिति की रिपोर्ट ने उस सच को उजागर कर दिया है. अतः जाने या अनजाने में हुई चूक के लिए न्यूज चैनल भी इस देश, विशेषकर किसानों के हितों की हत्या के अपराधी हैं. इन अपराधियों को दंड कौन देगा, कब देगा.?


Published: 07-04-2022

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