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यूक्रेन संकट : भारत की सधी भूमिका

संकट की घड़ी से दो चार दुनिया के इस कठिन समय में भारत को अपने भरोसेमंद मित्र रूस से भी दोस्ती कायम रखनी है और यूक्रेन के पीछे खड़े अमेरिका और यूरोप से भी रिश्ते बनाये रखने हैं. ऐसे में युद्धरत दोनों पक्षों को शांति का संदेश तटस्थ रह कर ही दिया जा सकता है.

भारत की सधी भूमिका
भारत की सधी भूमिका

यूक्रेन संकट में भारत की तटस्थता हालांकि आलोचना के निशाने पर हो सकती है लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में विदेश नीति का तकाजा तो यही है. बेेशक कभी कवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा था-समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। पर संकट की घड़ी से दो चार दुनिया के इस कठिन समय में भारत को अपने भरोसेमंद मित्र रूस से भी दोस्ती कायम रखनी है और यूक्रेन के पीछे खड़े अमेरिका और यूरोप से भी रिश्ते बनाये रखने हैं. ऐसे में युद्धरत दोनों पक्षों को शांति का संदेश तटस्थ रह कर ही दिया जा सकता है. किसी एक पक्ष के साथ ऐसे समय जब अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकारों को तीसरे विश्व युद्ध की आहट सुनाई पड़ रही हो, खड़े होने का मतलब तो यह होगा कि भारत ने भी मान लिया कि अब आर या पार हो ही जाये. युद्ध तो अंतिम विकल्प होता है.

रूस न केवल भारत का निकट पड़ोसी है बल्कि आजादी के बाद से ही रणनीतिक, कूटनीतिक और व्यापारिक साझीदार भी है. रूस भारत को हथियार, ईंधन, उर्वरक, परमाणु रिएक्टर, मशीनरी निर्यात करता है. दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार लगातार फल फूल रहा है. बड़ी बात ये है कि भारत और रूस के बीच द्विपक्षीय व्यापार में भुगतान रुपये में होता है. वैश्विक दृष्टिकोण के विरुद्ध जाकर रूस के यूक्रेन पर हमले का व्यापार पर असर तो जरूर पड़ेगा लेकिन उससे रूस के साथ आयात और निर्यात का नुकसान ज्यादा नहीं होगा. इसलिये ऐसे मित्र देश के विरुद्ध खड़ा होना कोई बुद्धिमानी तो नहीं ही है.

तो दूसरी ओर यूक्रेन बेशक आज की तारीख में एक पीड़ित देश है और पीड़ित के पक्ष में बोलना नैतिक जिम्मेदारी मानी जाती है. पर ये वही युक्रेन है जिसने समय समय पर भारत की विभिन्न मुद्दों पर मुखालफत ही की है. इस नाते भी भारत अगर उसके पक्ष में खुल कर सामने नहीं आ रहा है तो इसे जैसे को तैसा वाली नीति माना जाना चाहिये. इसके बावजूर यूक्रेन के प्रति भारत का रवैया प्रतिशोधात्मक न होकर मध्यस्थता वाला है तो इसे भारत की कुशल विदेश नीति ही कहा जायेगा. भारत की समझाइश रही है कि यूक्रेन अपने आक्रांता रूस से बातचीत के रास्ते समाधान की राह पर आये. भले ही वहां के शासक पूर्वी और दक्षिणी युक्रेन में बसी रूसी आबादी को दबाते आये हों.

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शायद दुनिया के अकेले ऐसे नेता हैं जिनसे रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने यूक्रेन पर हमला बोलने के बाद पहली बार बातचीत की और उन्होंने यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की से भी बात करके उनके घावों पर मरहम लगाने का काम किया है. इसी कूटनीतिक कुशलता के चलते भारत ने यूक्रेन में पढ़ रहे भारतीय छात्रों और कारोेबारी भारतीयों को युद्धक्षेत्र से सुरक्षित निकालने में सफलता प्राप्त की है. साथ ही उस अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों के क्लब नाटो की पेशकश को विनम्रता के साथ नकार दिया कि भारत संयुक्त राष्ट्र के मंच पर रूस का विरोध सार्वजनिक करे.

अमेेरिका और रूस दोनों ही ये चाहते थे कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आये प्रस्ताव पर भारत उनके पक्ष में मतदान करे. संयुक्त राष्ट्र की इसी सिलसिले में हुई आपात बैठक में भारत ने समझदारी के साथ अपना पक्ष रखा और दोनों पक्षों से संयम बरतते हुए तनाव कम करने का आग्रह किया. भारत के लिये ऐसा रुख अपनाना आसान नहीं था. वजह साफ है कि चीन से मिल रही रक्षा चुनौती के चलते भारत न तो रूस से रिश्ते बिगाड़ सकता है और न ही अमेरिका से संबंध खराब कर सकता है. भारत को दोनों के समर्थन की जरूरत है. यही नहीं भारत के पास उफनाता बाजार है इसलिये दोनों महाशक्तियों को भी भारत की जरूरत है. यह और बात है कि चाहे चीन से युद्ध हो या बांगलादेश मुक्ति संग्राम का दौर हो अमेरिका ने भारत की बांह मरोड़ी ही है.

अब आते हैं रूस-यूक्रेन संग्राम पर। यह कोई आज की लड़ाई नहीं है. यह दो सौ साल पुरानी लाग डांट है. पुतिन का कहना है कि 1721 से शुरू हुई जारशाही के जमाने से एशिया के दक्षिण पश्चिम को रूसी जमीन कहा जाता रहा है. यहां के रहने वाले रूसी कहलाते थे और कट्टर ईसाई थे. पर उससे पहले से ही यूक्रेन के लोग रूसियों से अपने अलग बताते रहे हैं जिसकी अपनी विशिष्ट भाषा, संस्कृति और इतिहास है. यूक्रेन जारशाही का हिस्सा जरूर रहा हो पर 1917 में लेनिन की बोल्शेविक क्रांति ने उसे जोर जबरिया ही सही बाकायदा सोवियत संघ का अंग बना दिया. पर यूक्रेन की अपनी अलग पहचान की महत्वाकांक्षा को पनपते देख कर एक समय 1922 में ऐसा भी आया जब यूक्रेनियन सोवियत रिपब्लिक को स्वतंत्र दर्जा कागज पर कम्युनिस्ट शासन को देना पड़ा.

नतीजन जारशाही के काल से लेकर सोवियत गणराज्य के अस्तित्व तक युक्रेन का दर्जा एक सहायक राज्य का बन कर रह गया था और राष्ट्रीयता की आवाजों को कुचल दिया गया. पर अमेरिका सारी दुनिया का बादशाह बनने की महत्वाकांक्षा में लोकतंत्र की राह चल पड़े पश्चिमी यूरोप के साथ मिल कर यूक्रेन की चिर आकांक्षा को हवा देता गया. यहां तक कि कभी सोवियत संघ के साम्यवादी विस्तार का हिस्सा बने यूक्रेन के काला सागर में बनेे टापू क्रीमिया को अपना नौसैनिक अड्डा बनाने की जुगत में लग गया और युक्रेन को नाटो का सदस्य बना कर रूस को सामरिक दृष्टि से घेरने की योजना पर काम करने लगा.

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने एक दशक पहले से ही ये कह कर अपने इरादे जाहिर करना शुरू कर दिया कि जिस देश पर वो शासन करते हैं यूक्रेन उसका हिस्सा है. यूक्रेन की राजधानी कीव रूसी शहरों की माता है. प्राचीन रूस हमारा साझा स्रोत है और हम एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते. इसके साथ ही रूस ने २०१४ में क्रीमिया पर कब्जा करके अमेरिका के साम्राज्यवादी दादागिरी के इरादे पर पानी फेर दिया. इसके बाद हाल में यूक्रेन के डोनबास शहर में रूस समर्थित अलगाववादियों की हिंसा उभरते ही पुतिन ने यूक्रेन की सत्ता को हिलाने और अपने माफिक बनाने की असली मंशा को अंजाम देने की योजना बनाना शुरू कर दी.

दरअसल सोवियत संघ के विघटन के बाद करीब 3 करोड़ रूसी अपने मूल देश से बेघर हुए थे. इनमें से ज्यादातर यूक्रेन, बाल्टिक राज्यों और कजाखस्तान में थे. यूक्रेन के राष्ट्रवादी लोग अपनी पहचान को बनाये रखने के लिये रूस की छाया से बाहर आकर यूरोेपीय संघ और नाटो की छतरी में आने की पैरवी करते रहे हैं. पर यूक्रेन के इस कदम को रूस भू राजनैतिक कारणों से कतई स्वीकार करने को तैयार नहीं हो रहा था. धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक कारणों से भी रूस यूक्रेन को अपना ही मानता है. यही नहीं यूक्रेन के अंदर भी यूरोपीय संघ या नाटो से जुड़ने के सवाल पर अंतर्विरोध रहे हैं. यही वजह रही कि 2014 में रूस ने जब क्रीमिया पर नियंत्रण हासिल किया तो उसी समय रूसी भाषा बोलने वाले यूक्रेनी नागरिकों ने लुहांस्क और डोनेत्स्क शहरों ने जनमत संग्रह के जरिये अपने आप को स्वायत्त घोषित कर दिया था.

अब सवाल ये है कि क्या यूक्रेन पर हमले के लिये पुतिन को दुनिया में एक ताकतवर शख्सियत के रूप में आंका जायेगा या एक खलनायक के रूप में. पर व्यावहारिक रूप से अगर देखा जाये तो रूस का आक्न्यूरामक रवैया न्यूटन के नियम की तरह है और वो ये कि हर क्रिया की बराबर और वैसी ही प्रतिक्रिया होती है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया में दो महाशक्तियां उभर कर सामने आयीं थीं और उसे बाइपोलर वर्ल्ड आर्डर कहा गया. इनमें एक का सरदार अमेरिका था तो दूसरे का मुखिया सोवियत संघ था. तीन दशक पहले सोवियत संघ के विघटन के बाद से रूस कमजोर होता गया और अमेरिका और उसके खेमे की उम्मीदें परवान चढ़ने लगीं. इतनी कि रूस के पुराने हिस्सों यूक्रेन, बेलारूस तक में वो अपनी फौजें तैनात करने लगा.

ऐसे में अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के गिरोह रूस और पूर्वी यूरोप के साम्यवादी समूह को पहले तोड़ें और फिर दूरबीन लेकर उस की सीमा पर बैठ जाये तो किसी को भी बुरा तो लगेगा. उस पर रूस पहले ही विघटन के कारण खून के घूंट पिये बैठा हो और दुनिया की महाशक्ति आज भी उसे कहा जाता हो. इसलिये मौका मिलते ही रूस ने चौका जड़ दिया. पुुतिन को इस बात की कतई परवाह नहीं है कि दुनिया उसे हमलावर कहे. दुनिया जो चाहे कहे आज की तारीख में इस हमले के बाद दुनिया में अब तीन महाशक्तियां हैं अमेरिका, चीन और रूस. इनमें से दो एशिया में हैं. चीन और रूस आज अमेरिका से न सैन्य ताकत में कम हैं और न ही अर्थ में. अमेरिका तो एक अलग टापू है और विशाल अटलांटिक महासागर उसे पश्चिमी यूरोप से भी अलग थलग करता है. पर चीन और रूस जो आज के संकट में एक साथ खड़े नजर आ रहे हैं उनकी भौगोलिक सीमाएं एक दूसरे से जुड़ीं हैं. इन दोनों देशों के साथ ही भारत भी एशिया में एक बड़ी ताकत बनने की राह पर है. तो क्या आने वाले समय में दुनिया पर राज एशिया करेगा जहां प्राकृतिक और मानव संसाधन, प्रतिभा, बाजार और ताकत सब कुछ तो है.

 

 


Published: 27-02-2022

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