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यू पी चुनाव 2022 : विचारों का युद्ध

उत्तरप्रदेश में 2022 का चुनाव विचारों का युद्ध भी है जहां मोदी केवल विजय की ओर ही नहीं देख रहे हैं बल्कि यहाँ की राजनितिक जमीन को भाजपा के लिए और टिकाऊ बनाने के बारे में सोच रहे हैं.

विचारों का युद्ध
विचारों का युद्ध

आजादी के बाद से ही उत्तरप्रदेश का जनादेश देश में राजनीति की दिशा तय करता आया है. पर अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन के एक मुकाम पर पहुंच जाने के बाद 1993 से राज्य में मिली जुली सरकारों का जो दौर शुरू हुआ तो फिर उसकी धमक केन्द्र तक पहुंची और वहां भी इसका प्रभाव दिखायी दिया. देश के कुछ और राज्यों में भी ये प्रयोग आजमाया जाता रहा. ये और बात है कि गठबंधन सरकारों की उलझी गांठें साझीदार राजनीतिक दलों की वैचारिक मजबूरियों या यूं कहें कि स्वार्थ के चलते जब तब खुलती रहीं. इसका नफा क्या रहा और नुकसान क्या हुआ इसका आकलन जनता ने समझदारी से किया और पाया कि ठीक तो एकदलीय सरकार ही होती है.

दो दशकों तक चले गठबंधन सरकारों के दौर से आजिज आकर ही 2007 में उत्तरप्रदेश ने एक बार फिर मायावती के नेतृत्व में एकदलीय सरकार बना कर देश को संदेश दिया कि जाॅर्ज ऑरवेल के नाॅवेल एनीमल फार्म में बनी मिली जुली सरकार में निजी महत्वाकांक्षा के कारण कुछ हावी और प्रभावी राजनेताओं के स्वार्थ की सिद्धि तो हो सकती है लेकिन देश या प्रदेश पीछे रह जाता है. शायद यही कारण रहा कि 2012 में नये नवेले मासूम से दिखने वाले नौजवान चेहरे अखिलेश यादव पर जनता रीझ गयी और उन के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी को स्पष्ट बहुमत देकर एकदलीय सरकार पर ही उत्तरप्रदेश के मतदाताओं ने लगातार दूसरी बार अपनी मुहर लगा दी. वो भी तब जब पार्टी मुखिया मुलायम सिंह यादव के बार्धक्य के बाद उत्तराधिकार को लेकर चाचा शिवपाल यादव और भतीजे अखिलेश यादव के बीच संघर्ष अपने चरम पर था.

और देखिये कि उत्तरप्रदेश के इस लगातार दूसरे स्पष्ट जनादेश के सात साल पूरे होने के बाद ही देश के सबसे बड़े किसान नेता चौधरी चरण की कही यह बात सच साबित हो गयी कि संसद का रास्ता उत्तरप्रदेश के गांव की गलियों से होकर गुजरता है. 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश में भारतीय जनता पार्टी की एकदलीय सरकार न केवल बनी बल्कि 2019 में ठसके के साथ रिपीट भी हुई. इस बीच 2017 भी आया जिसमें दल और चेहरा तो फिर बदला पर सुधि मतदाता ने खिचड़ी सरकार की ओर पलट कर देखना गवारा नहीं किया.

अब 2022 सामने है जिसमें उत्तरप्रदेश की बागडोर का फैसला जनता के हाथों होना है. पर सीन ये है कि 1989 से यहां के मतदाता ने राजनीतिक दलों को तवे पर रोटियों की तरह पलट पलट कर सेंका है. इसलिए यहां किसी भी दल की सरकार रिपीट नहीं हो सकी है. इसे जनता की अधीरता कहें या बुद्धिमत्ता आप तय करिये पर उसने सरकारों को परफेक्ट परफॉरमेंस के लिए एक दल को बस पांच बरस का ही समय तय किया हुआ था. भई जो कुछ करना है वो पांच साल में कर के दिखाओ वरना रास्ता नापो.

इस बार योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार इसी मिथक को तोड़ने के इरादे से मैदान में टाल ठोक रही है. भाजपा अपने इस अभियान में सफल हो पायेगी या नहीं ये तो 10 मार्च को ही पता लग पायेगा. पर भाजपा की इस आशावादिता का आधार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को माना जा रहा है. राजनीतिक रूप से भाजपा के नेताओं का भी यह मानना है कि 2014, 2017 और 2019 में लगातार उत्तरप्रदेश में भाजपा को विजय का जो आशीर्वाद मिला उसके पीछे मोदी की बढ़ती लोकप्रियता और स्वीकार्यता ही प्रमुख कारक रही है.

एक रोचक तथ्य यह भी है कि 2019 के बाद से देश में जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं उनमें राज्य सरकारें अपनी सत्ता बचाने में सफल रही हैं. महाराष्ट्र को एक अपवाद के रूप में देखा जा सकता है जहां एनडीए को दोबारा मिली जीत के बाद भी सहयोगियों में ताज के लिये संघर्ष के चलते परिदृश्य उलट गया. तो तमिलनाडु में सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जे जयललिता और विपक्ष के मुखिया करुणानिधि के निधन के कारण राजनितिक मंच पर बदलाव सामने आया. इसके बावजूद पांच साल के शासन के बाद सरकार से उसके चहेतों को मनचाहा न मिल पाने के कारण एंटी इनकम्बेन्सी फैक्टर का भारी दबाव हर राजनीतिक दल पर रहता ही है. इस राजनीतिक ट्रेंड को एक तरफ रख दें तो उत्तरप्रदेश का ताजा चुनाव हमें यह बतायेगा कि मोदी के प्रयास क्या जातिवाद, धार्मिक ध्रुवीकरण और क्षेत्रीय पहचान की जकड़ में फंसे राज्य की राजनीतिक गतिकी को बदलने की ताकत रखता है या नहीं.

भाजपा ने उत्तरप्रदेश की जाति आधारित पार्टियों को राजनीतिक रूप से अलग थलग करने के लिये जिस रणनीति का सहारा लिया वो ये था कि उसने उन अतिपिछड़ी और अतिदलित जातियों पर ध्यान केन्द्रित किया जो मायावती, मुलायम या अखिलेश यादव के राज में पीछे रह गईं. इन वंचितों को आर्थिक रूप से सबल बनाने पर ध्यान दिया और जिसके परिणामस्वरूप भाजपा को चुनावी सुफल की प्राप्ति हुई. जब मोदी सत्ता में आये तो इस आधार को मजबूत किया और क्षेत्रीय दलों के राज में जो जातीय बाहुबली और धनबली बिचैलिया तंत्र पनपा उसे डीबीटी यानी सीधे खाते में पैसा पहुंचा कर निष्क्रिय कर दिया. गरीबों का यह नया समूह ने, जिसे आज एक नया नाम भी दिया जा रहा है लाभार्थी समूह, चुनाव दर चुनाव मोदी पर भरोसा करता चला गया. इसका परिणाम ये हुआ कि जाति की गोलबंदी के आगे वर्ग का यह वंचित समूह खड़ा हो गया जो ज्यादा समावेशी भी था और लचीला भी था. भाजपा के लिये जाति के खांचे में बंधने के बजाय वर्ग पर फोकस करना उसकी राष्ट्रीय दल की छवि के लिये भी ज्यादा अनुकूल था. अब चुनौती भाजपा के सामने ये है कि इस नये वंचित लाभार्थी वर्ग या समूह को कैसे बांधे रखा जाये.

2022 के चुनाव का परिणाम ये बता देगा कि भाजपा अपने इस अभियान में कितना और कहां तक सफलता प्राप्त कर पाती है या फिर जाति का समीकरण सत्ता के लिये बेचैन क्षेत्रीय दलों के लिये संजीवनी का काम करता है. जाति आधारित समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के लिये यह चुनौती है कि वो कैसे अपनी सोशल इंजीनियरिंग को विजय में परिवर्तित कर पाते हैं. बहुजन समाज पार्टी तो इस चुनाव में परोक्ष रूप से अतीत की छाया मात्र नजर आ रही है. वहां इसमें कोई शक नहीं है कि समाजवादी पार्टी मंहगाई, बेरोजगारी, किसानी के सवालों को उठा कर कड़ी टक्कर दे रही है. शायद पहली बार अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा ने ओबीसी पाॅलिटिक्स में अन्य पिछड़ी जातियों के साथ पाॅवर शेयर की मंशा जाहिर की है. सपा का अन्य जाति आधारित उप क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन इस बात का संकेत है कि अखिलेश यादव कुर्सी के लिए यादवी प्रभुत्व को कुछ हद तक कुर्बान करने को तत्पर हैं. उधर मायावती ने सत्ता सुख से वंचित छोटे दलों के साथ ही सवर्णों खासकर ब्राह्मणों के राजनीतिक उभार को मान्यता देने का प्रयास किया है. पर इस राजनितिक समीकरण सबसे पहले भाजपा ने समझा, साधा और 2017 में सफलता के साथ परखा. इस चुनाव में देखने वाली बात ये होगी कि ये अन्य जातियां अभी भी भाजपा में ही विश्वास करती हैं या फिर प्रभावशाली पिछड़ी जातियों के साथ सत्ता शेयर करने का प्रयोग करती हैं.

इस चुनाव में एक और पहलू साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का है जो हिंदुत्व की रिब्रांडिंग से गहराई से जुड़ा हुआ है. अब से पहले किसी भी राजनेता ने मंदिरों के निर्माण या पुनर्निमाण का साहस नहीं किया. इस डर से कि कहीं सत्ता न हिल जाये और ये मसला धार्मिक संतों और महंतों के हवाले करके पल्ला झाड़ लिया था. इसके परिणामस्वरूप उत्तरप्रदेश के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में आधारभूत ढांचा प्रभावित हुआ. मोदी ने बिना किसी खौफ के इस राजनीतिक तस्वीर को तोड़ने का बीड़ा उठाया. काशी विश्वनाथ मंदिर का पुननिर्माण एक चुनौती भरा काम था. पर मोदी ने इस काम को हाथ में लिया और इस तरह से किया कि हिंदुओं के पूजास्थलों का आधुनिक तरीके से रखरखाव हो और वो भी साफ सफाई के साथ. यही काम अयोध्या में करके हिंदुत्व को प्रगतिशील सांचे में ढाल कर दुनिया के सामने पेश किया. इसके साथ ही लिंग भेद, विवाह की आयु में वृद्धि, लघु और सीमान्त किसानों की बेहतरी और कानून और व्यवस्था को प्राथमिकता जैसे सवालों को मजबूती के साथ हल किया. उस पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मोदी के प्रयासों को जमीन पर उतरने की ईमानदार कोशिश की.

यहां ध्यान में रखने की बात ये है कि 2019 के बाद से भाजपा ने जितने भी चुनाव हारे हैं वो क्षेत्रीय दलों से हारे हैं. तृणमूल कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोर्चा, शिव सेना, राष्ट्रीय जनता दल या आम आदमी पार्टी ने ही भाजपा से मोर्चा लिया है वो कांग्रेस पार्टी कोई चुनौती पेश नहीं कर पाई जिसे राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल है. इन दलों ने भाजपा को बाहरी पार्टी बता कर मैदान मारा. पर उत्तरप्रदेश में आज की तारीख में वाराणसी के सांसद मोदी को कोई बाहरी नहीं कह सकता. यहां भाजपा का तर्क है कि वास्तव में यह राज्य की स्वाभाविक पार्टी है जो उत्तरप्रदेश की सामाजिक, सांस्कृतिक अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है. कई मायने में भाजपा का राष्ट्रवाद हिंदी के हृदय प्रदेश उत्तरप्रदेश के क्षेत्रवाद से कायदे से मेल खाता है और इसी के बल पर उसने जाति आधारित राजनीति को बेअसर किया है. मोदी ने अपने लाभार्थी समूह, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और राष्ट्रवाद के अस्त्रों के सहारे उत्तरप्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में नये रंग भरे तो हैं. पर संसाधन हों या न हों आरक्षण और अधिकार के सहारे पलने वाले सत्ता में हिस्सेदारी के लिये बेचैन वैकल्पिक दलों का विरोध उनके सामने बड़ी चुनौती भी है.

इस दृष्टि से देखा जाये तो उत्तरप्रदेश में 2022 का चुनाव विचारों का युद्ध भी है जहां मोदी केवल विजय की ओर ही नहीं देख रहे हैं बल्कि यहाँ की राजनितिक जमीन को भाजपा के लिए और टिकाऊ बनाने के बारे में सोच रहे हैं.


Published: 25-02-2022

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