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कृषि सुधार की हार : कृषि कानूनों की वापसी से मिले कुछ सबक

तीन नए कृषि कानूनों को रद्द करने की घोषणा कर के मोदी सरकार ने एकदम सही कदम उठाया है। लम्बे समय से चल रहे झगड़े सुलझाने का यही एक रास्ता था, लेकिन इससे यह बात बदल नहीं सकती कि इन कृषि सुधार कानूनों से इन किसानों का ही भला होता। यह तथ्य भी नहीं बदला जा सकता के ये कानून शुरू से ही निष्प्राण और परस्पर विरोधी थे।

कृषि कानूनों की वापसी से मिले कुछ सबक
कृषि कानूनों की वापसी से मिले कुछ सबक

लोकतंत्र में यह मायने नहीं रखता कि किसी नीति के बारे में शासक कितने आश्वस्त हैं कि वह जनता के हित में है। शुरू के कुछ सप्ताहों के अंदर ही साफ़ हो गया कि किसी ने पहले से तैयारी करने, विपक्ष या अपने सहयोगियों के साथ ही मिलकर आम सहमति बनाने या इन बदलावों से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले लोगों को राजी करने की जहमत नहीं उठायी थी। बिना बात -विचार करे बिना विमर्श करे आप बड़े फैसले नहीं ले सकते।
कृषि कानूनों के मामले में सरकार ने सबसे बड़ी गलती ये की कि इसे अध्यादेश के रूप में लाया गया। अध्यादेश जारी कर दो तो कानून बनाना एक औपचारिकता रह जाता है। इसका अर्थ होता है कि संसद की मंजूरी निश्चित हो जाती है और बहस महज किताबी बनकर रह जाती है। यह सब ऐसे मसलों में तो चल सकता है, जिन पर पहले से व्यापक सहमति हो या जो कम लोगों को प्रभावित करते हों लेकिन जब कृषि जैसे राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील मसले को उठा रहें हों जिससे करीब आधी आबादी सीधे प्रभावित होती है, वैसे मसले को क्या अध्यादेश के जरिये ही निबटाना जरूरी है? खेती के मामले में ये सब नहीं चलता। यह पीढ़ी-दर -पीढ़ी आगे बढ़ते हुए ही सख्त होती है। हरित क्रांति से पहले पांच साल तक उसके लिए जमीन तैयार की गयी थी, किसानों से सीधा संवाद किया गया था, उन्हें उनके अंदाज में समझाया-बुझाया गया था। उस क्रांति के विचार के देसी प्रचारक उभरे और उन्होंने किसानों को समझाया। अब हम तीन अध्यादेश के जरिये रातोंरात उनकी आदतों और अर्थव्यवस्था को बदल डालना चाहते हैं।
हरित क्रांति 53 साल पहले आयी थी। उसने अपना काम पूरा कर दिया है, ये पंजाब से समझ आता है। अगर नए कृषि कानूनों का सबसे प्रबल विरोध उसी राज्य में हो रहा जिसे इसकी सबसे ज्यादा जरुरत है तो इससे स्पष्ट होता होता है कि सुधारक ने पूर्व तयारी नहीं की है।
यह समझना होगा कि लोकतंत्र में संसदीय बहुमत होने के बावजूद अपनी सीमाएं हैं। दूसरा आपका चाहे कितना भी वर्चस्व क्यों न हो भारत राज्यों का संघ है और सिर्फ 28 में से 12 राज्यों के मुख्यमंत्री आपकी सत्ता में हैं। इसका अर्थ है कि भारत का एक बड़ा दायरा ऐसा है जो बिना सवाल उठाये आपके पीछे नहीं चल रहा है। राज्यों को साथ लाये बिना इसके बुनियादी ढाँचे में परिवर्तन करेंगे तो विरोध होगा ही।


Published: 24-11-2021

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