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देश के असली नायकों का सम्मान : अब खानदान नहीं योगदान को पुरस्कार

आज हम सब को अपने आप से एक सवाल पूछना है कि क्या सच्चे लोगों की अच्छी कहानियां भी हेडलाइंस बनती है? ये सवाल हमारे देश की मीडिया से भी पूछा जा सकता है, और देश की आम जनता से भी। हमसब ने ये बात नोटिस की है कि जब किसी आम इंसान के बारे में कोई बड़ी खबर आती है तो हमारा मीडिया उसे नहीं दिखाता और लोग भी किसी सेलिब्रिटी के बारे में जानना या देखना ज्यादा पसंद करते हैं। लेकिन कोई साधारण व्यक्ति अगर बहुत अच्छा काम कर रहा हो तो उसके बारे में लोग नहीं जानना चाहते।

अब खानदान नहीं योगदान को पुरस्कार
अब खानदान नहीं योगदान को पुरस्कार

क्या निःस्वार्थ भाव से बड़े बड़े काम करने वाले वो लोग जो बड़े-बड़े खानदान में पैदा नहीं हुए और जो बड़े-बड़े नेता नहीं हैं, फिल्म स्टार, क्रिकेटर, और सेलिब्रिटी भी नहीं है, क्या उनके बारे में अखबार के पहले पन्ने पर कभी खबर छपेगी? क्या न्यूज़ चैनल्स के हेडलाइंस वो कभी नहीं बनेंगे? क्या उनके\इंटरव्यूज हमें कभी देखने मिलेंगे?
आइये मिलते हैं देश के कुछ ऐसे नायक-नायिकाओं से जो दिखने में तो एकदम साधारण हैं, पर उनकी सोच एकदम असाधारण। हाल ही में देश के राष्ट्रपति ने ऐसे तमाम लोगों को पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया, जिन्होंने समाज के लिए योगदान दिया, और ये वाले लोग जब राष्ट्रपति भवन के रेड कारपेट पर नंगे पैर चल के आये तो कही न कही हम सब का दिल बाग़ -बाग़ हुआ होगा। पूरा देश गौरवान्वित हुआ होगा।

तुलसी गौड़ा- कर्नाटक की 73 वर्षीय महिला हैं, जो पिछले 6 दशकों से पेड़ों और जंगलों की रक्षा कर रहीं हैं। ये अब तक 30,000 से ज्यादा पेड़ लगा चुकी हैं। ये हमारे देश की विडंबना ही है कि हम स्वीडन की मशहूर पर्यावरण कार्यकर्त्ता- ग्रेटा थनबर्ग को जानते हैं, उनके ट्वीट्स फॉलो करते हैं। उन्होंने अपने जीवन कल में शायद ही कभी जंगलों के बीच रहकर पर्यावरण के लिए कुछ किया होगा। क्योंकि वो ज्यादा काम सोशल मीडिया पर करती हैं। मीडिया के सामने करती हैं। इसलिए वो मीडिया में छायी रहती हैं। और तुलसी गौड़ा ने अपने जीवन के 60 साल धरती की सेवा में लगा दिया बिना ये सोचे की कभी मुख्य न्यूज़ की हेडलाइंस होंगी, या किसी मैगज़ीन में उनकी फोटो छपेगी, या उन्हें उनके कार्यों के लिए सम्मानित किया जाएगा, या उनका इंटरव्यू लिया जाएगा। उन्होंने ये सेवा निःस्वार्थ भाव से किया।
               तुलसी गौड़ा के तरह ही कर्नाटक के हरेकाला हजब्बा भी नंगे पैर राष्ट्रपति भवन के शानदार रेड कारपेट पर चलते हुए पद्म श्री पुरस्कार लेने गए। 65 साल के हजब्बा पेशे से एक छोटे फल विक्रेता हैं, लेकिन उनकी उपलब्धियां और सोच कई मामलों में स्रवश्रेष्ठ हैं। उन्होंने अपनी छोटी सी जमा पूंजी से अपने गांव में गरीब बच्चों के लिए एक स्कूल बनवाया है ताकि कोई भी बच्चा अशिक्षित न रहे। उनकी तरह बहुत सरे ऐसे लग हैं पहली बार सुना है। ये हम सब के लिए बहुत ही गौरवान्वित करने वाला क्षण है जब हम भारत के सच्चे नायकों को इस तरह राष्ट्रपति भवन में पद्म श्री पुरस्कार लेते हुए देख रहे हैं। आज भारत के हर नागरिक को ये सम्मान देखकर गर्व होता होगा।
पद्म श्री पुरस्कारों की शुरुआत 1955 में हुई थी जिसका मकसद था विभिन क्षेत्रों में जैसे खेल, सिनेमा, पर्यावरण के क्षेत्रों में कुछ अलग प्रतिभा दिखाने वाले लोगों का सम्मान करना और उन्हें प्रोत्साहित करना।लेकिन ये हमारे देश का दुर्भाग्य ही था कि 1960 के दशक में यह पुरस्कार नेताओं और उनके परिवार के लोगों को खुश करने का जरिया बन गया। इसके बाद के वर्षों में भी ये पुरस्कार आम लोगों को कभी नहीं मिला। वर्ष 1955 से 2016 के बीच कुल 4284 लोगों को पदम् विभूषण, पद्म भूषण पद्मश्री पुरस्कार मिले।लेकिन हैरानी की बात ये है कि इन 4000 लोगों में से 793 लोग ऐसे थे जो दिल्ली में रहते थे और राजनितिक रसूख़ वाले बड़े बड़े परिवारों के करीबी थे। दिल्ली के बाद इन पुरस्कारों के लिए दूसरी पसंद महाराष्ट्र के लोग हुआ करते थे, क्योंकि इस समय अवधि में महाराष्ट्र के 748 लोगों को पद्म पुरस्कार मिला वो इसलिए कि महाराष्ट्र के नेता और उनकी पार्टियां काफी रसूख़दार हुआ करते थे। लेकिन ऐसे लोगों का नंबर कभी नहीं आया जो देश में बदलाव लाने के लिए जमीनी स्तर पर काम करते हैं और इस देश के असली नायक हैं। देश के असली नायकों का नंबर अब आया है। हमारे देश में चित्र को नहीं चरित्र को पूजा जाता है और इस बार के आम लोगों को मिला ये सम्मान यह बात सही साबित करता है।


Published: 11-11-2021

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