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उजड़ता उत्तराखंड : तमाशबीन सरकार

उत्तराखंड में एक कहावत कही जाती है कि पहाड़ का पानी और जवानी पहाड़ के काम नहीं आती, वो बहकर नीचे क्षेत्र की ओर चली जाती है. राज्य में पलायन इस कहावत को फलहित करता दिखाई देता है.उत्तराखंड में बुजुर्गो के कमजोर शरीर, झुकी कमर, झुर्रीदार चेहरे से उनके अकेलेपन का दर्द साफ झलकता है. परिवार से बिछड़ बुजुर्गो के यह हालत पहाड़ी इलाकों में बढ़ रहे पलायन की स्थिति को बयां कर रहे हैं.

तमाशबीन सरकार
तमाशबीन सरकार

उत्तराखंड में एक कहावत कही जाती है कि पहाड़ का पानी और जवानी पहाड़ के काम नहीं आती, वो बहकर नीचे क्षेत्र की ओर चली जाती है. राज्य में पलायन इस कहावत को फलहित करता दिखाई देता है.

उत्तराखंड में बुजुर्गो के कमजोर शरीर, झुकी कमर, झुर्रीदार चेहरे से उनके अकेलेपन का दर्द साफ झलकता है. परिवार से बिछड़ बुजुर्गो के यह हालत पहाड़ी इलाकों में बढ़ रहे पलायन की स्थिति को बयां कर रहे हैं. उत्तराखंड में अधिकांश पढ़ा-लिखा वर्ग गाँव से बाहर रोजगार को पलायन कर रहा है. ये युवा या तो उत्तराखंड के शहरी क्षेत्र या उत्तराखंड के बाहर जहां काम मिल जाये काम की तलाश में निकल जाते हैं और कभी साल-छह महीने में गाँव पहुच पाते हैं. ऐसे करके अगर देखा जाए तो उत्तराखंड के गांव से पचास से साठ फीसदी आबादी राज्य की पोल खोलकर बेहतर भविष्य की तलाश में पलायन कर चुकी है. कोविड-19 के चलते राज्य में लोग अपने घर तो वापस आए हैं, लेकिन राज्य सरकार वापस आए इन लोगों को राज्य में रोकने के लिए धरातल में क्या करती है सब इस बात पर निर्भर करता है.

पलायन की मुख्य वजहों में रोजगार, शिक्षा का अभाव, चिकित्सा सुविधा का अभाव, कृषि पैदावार की कमी, जंगली जानवरों से खेती का नुकसान, सड़क, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव एवं एक-दूसरे की देखा-देखी पलायन देखा गया है. पहाड़ के गांव केवल और केवल मूलभूत सुविधाओं के अभाव में खाली हो रहे हैं. देखा जाए तो यह रातों रात नही हुआ है. आज की यह स्थिति पैदा होने में कई वर्षो का समय लगा होगा. सवाल यह है कि आखिर कितनी सरकारें सत्ता में आई, समितियां बनी, रिपोर्ट्स बनी, चर्चाएं हुई, चर्चाओं पर कार्य भी हुआ, बस नही रोका जा सका तो सिर्फ पलायन. अगर सुरक्षा की दृष्टि से भी देखा जाए तो चीन और नेपाल से सटे उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों से भारी पलायन ठीक नही.

उत्तराखंड के गांवों के लोगों का पलायन 60 से 80 के दशक से ही गति पकड़ता रहा, जो राज्य बनने के पहले और बाद में भी गति पकड़ता रहा.
पर्वतीय लोगों की पहचान को संरक्षित करना राज्य बनाने के मकसद की मूल अवधारणा थी लेकिन सालों में इस राज्य की सरकारों ने इन लक्ष्यों को पाने के लिए कैसे काम किया, पिछली पलायन आयोग की रिपोर्ट उसी नाकामी का दस्तावेज है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पर्वतीय जिलों की आबादी राज्य बनते ही इतनी ज्यादा घटती चली गई कि 2008 में पर्वतीय जिलों की 6 विधानसभा सीटें खत्म कर देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंहनगर में मिला दी गईं.

अब खतरा यह है कि पहाड़ों में पलायन के कारण, वहां आबादी घटने का क्रम, इसी तरह जारी रहा और गैर पर्वतीय लोगों का वहां बसने का सिलसिला ऐसे ही चला तो कुछ दशक बाद उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य में वहां के मूल लोगों के अल्पमत में आने से इस हिमालयी राज्य के गठन की पूरी अवधारणा ही ध्वस्त हो जाएगी. पूरे उत्तराखंड में दस से कम विद्यार्थियों की संख्या वाले सैकड़ों स्कूल बंद होने लगे हैं. आने वाले दिनों में उत्तराखंड के हजारों प्राइमरी स्कूल बंद होने के कगार पर पहुंच चुके होंगे. सरकारी स्कूलों में शिक्षा की बदहाली व उच्च शिक्षा पलायन का एक प्रमुख कारण है.

यह सच्चाई छिपी नहीं है कि राज्य बनने के बाद यहां की सरकारों ने पहाड़ों के बुनियादी सवालों शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, खेती बाड़ी की ओर ध्यान देने के बजाय कुर्सी, पद, पैसा और संपत्तियां जुटाने की होड़ को और बढ़ावा दिया. राज्य बनने के बाद यहां की राजनीति में जिस तरह का ओछापन इन तमाम वर्षों में उत्तराखंड की राजनीति में देखने को मिला, उससे राज्य के आम लोगों को काफी निराशा हुई है लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि राज्य बनने के बाद यहां बदला कुछ भी ज्यादा नहीं.


Published: 09-06-2021

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