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उफ़ ये पत्रकार नेता : धंधे के लिए बेचैन

उत्तर प्रदेश के मान्यता प्राप्त पत्रकारों के चुनाव की सरगर्मी जोरों पर है. पत्रकारिता कभी सोद्देश्य हुआ करती थी. उत्तर प्रदेश मान्यता समिति का चुनाव होने का प्रश्न ही नही था. किसी वरिष्ठ पत्रकार को अध्यक्ष पद स्वीकार कराना आसान नही था. मान मनौव्वल करनी पड़ती थी.

धंधे के लिए बेचैन
धंधे के लिए बेचैन


उत्तर प्रदेश के मान्यता प्राप्त पत्रकारों के चुनाव की सरगर्मी जोरों पर है. हांलाकि पत्रकारिता कभी सोद्देश्य हुआ करती थी।
मान्यता समिति का गठन मात्र इसलिए किया गया था ताकि एक ही समय मे दो पत्रकार वार्तायें न हों। उस समय मे लखनऊ में मात्र पांच अखबार थे,स्वतंत्र भारत,पायनियर,नवजीवन, कौमी आवाज़ और नेशनल हेराल्ड। आज अखबार बनारस में छपता था जबकि जागरण कानपुर में और अमर उजाला आगरा से निकलते थे। यही नहीं बाकी दिल्ली के थे पर वे भी लखनऊ दो तीन दिन बाद पहुंचते थे। कुल मिलाकर बीस इक्कीस संवाददाता मान्यता प्राप्त हुआ करते थे। जब मेरी मान्यता हुई तो तत्कालीन निदेशक सूचना ने कटाक्ष किया था कि एक सरकारी दामाद और बढ़ गया लेकिन मजाक था यह।

उस समय सरकार में बीस बाइस मंत्री और इतने ही सचिव पदों पर आई ए एस अधिकारी हुआ करते थे। हम लोग दो ढाई घण्टे में पूरी सरकार की नब्ज टटोल लेते थे। यही नहीं,सम्पादकों की संवाददाताओं पर कड़ी नजर रहा करती थी। किसी को बहकने की हिम्मत नही होती थी लेकिन तब में और अब में बहुत फर्क है। आज मान्यता प्राप्त संवाददाताओं की संख्या बढ़कर आठ सौ से ऊपर पहुंच चुकी है। मान्यता समिति की बैठक में हर मान्यता मांगने वाले पत्रकार को लिखकर देना पड़ता था कि वह विज्ञापन का काम नही करता है। बिना सम्पादक की अनुमति के किसी बाहरी अखबार में अपने नाम से खबर या लेख लिखने पर प्रतिबंध था। किसी सरकारी कमेटी या पुरुस्कार के लिए सोंचने का सवाल ही नहीं उठता था।

उत्तर प्रदेश मान्यता समिति का चुनाव होने का प्रश्न ही नही था। किसी वरिष्ठ पत्रकार को अध्यक्ष पद स्वीकार कराना आसान नही था। मानमनौव्वल करनी पड़ती थी। शेष पदाधिकारियों के नाम भी उनकी सम्मति से तय कर लिए जाते थे लेकिन अब तो मान्यता समिति का चुनाव विधान परिषद के चुनाव से कहीं अधिक टक्कर लेता है यही नही दावत तवाज़े, पत्रकारों के वोट के लिए गाड़ियों की रेलम पेल के अजूबे दृश्य भी होंगे सोंच भी नही सकते थे। आज मान्यता समिति का चुनाव सारी हदें पार कर चुका है। मान्यता समिति का पंजीकरण, आचार संहिता की बात उठाना बेमानी मान ली गयी। जो कर सकता है,उसे अवश्य करना चाहिए इस पर हमने मोहर लगा दी!

जब अख़बारों की संख्या कम थी,संवाददाताओ की तादाद भी उंगलियों पर थीं। हमारे सामने ज्यादा विकल्प नही थे। हमारा वेतन भी 150 रु से शुरू होता था। जब अलीगंज में पत्रकारों को सबसिडी पर भूखंड दिए गए थे तब तक तनखाह 500 रु तक ही बढ़ी थी। पत्रकार पुरम में भूखंड के लिए पंजीकरण 12000रु और छह महीने में 60,000रु देने थे तब वेतन 1000 रु ही था। बहुत से पत्रकार इसीलिए लेने की हिम्मत नही जुटा सके थे। बाद में एकाध प्लाट खाली हुए तो कुछ लोंगो को मौका दिया गया।

पत्रकारों को पटाने की शुरुआत तत्कालीन परिवहन मंत्री राज मंगल पांडे के समय से शुरू हुई। बाद में सरकारी भवन आवंटित करके हुआ। शुरू में लगा साईकल चलाने वाले पत्रकारों को रहने की सरकारी छत मिल गयी। बड़े सरकारी अफसरों ने खुलकर विरोध भी किया। कुछ हद तक यह विरोध सही भी था। हम पत्रकारों के स्तर से सरकारी मकान मंहगे थे। जीवन शैली से । लेकिन जब भूखंड पाने वाले पत्रकारों ने उन्हें किराए पर उठा दिया और सरकारी मकान खाली नही किया तो नए पत्रकारों की नजर उन पर टेढ़ी हो गयी। कुछ हद तक यह सही भी था(जिसमे में भी शामिल था और चाह कर भी छोड़ नही सका। क्योंकि अपनी बेटी के विवाह में उसे रेहन रखना पड़ा था। पर अब इस झंझट से निकलने का मन बना रहा हूं). लेकिन अब चाहे नया पत्रकार हो या पुराना । सभी हायर और फायर के चलते बड़े वेतन पर काम कर रहे है। उनके पास एक नही कई कई भूखंड है। कुछ के पास रिजॉर्ट और कुछ चंद महीनों में ही नई कार के मालिक बनने का सौभाग्य भी। साल भर में कार बदलने का जुगाड़ भी कई पत्रकार ऐसे हैं जो, पेट्रोल पम्पो, गैस की दुकानों के मालिक हैं।अखबार के राजनीतिक प्रभाव को भुनाने के लिए कई बिल्डर भी अखबार मालिक भी मैदान में उतरे।

कुल मिलाकर पत्रकारिता अब ऊपरी कमाई का धंधा बनी हुई है और कुछ पत्रकार समितियां कल्याण के नाम पर अपना कल्याण करने में भी जुटी हुई हैं। कोरोना काल मे एक पत्रकार कल्याण समिति भी वजूद में आई है जो जन प्रतिनिधियों मंत्रियों से अपने रसूख का फायदा लेने में लगी बताई जाती है। जिसका वीडियो भी वायरल है । हमारी मान्यता समिति तो उस उपक्रम के आगे ठहरती ही नहीं है। खबर यह भी है कि इस तथा कथित पत्रकार कल्याण समिति के पास लम्बी रकमे देने वालों में दो नम्बर की कमाई का भारी अंश है। ताज्जुब नही अगर यह राशि पचास साठ लाख से ऊपर पहुंच गई हो।

सच तो यह है कि हम पत्रकारों को भ्रष्ट करने का काम सरकार में बैठे राज नेताओं, नौकरशाहों ने किया है। पत्रकार उनके चारे मे फंसते रहे । जब कि पत्रकारों के कल्याण की जिम्मेदारी अखबारों के मालिकों पर डाली जानी चाहिए थी ।सरकार पत्रकारों को सिर पर चढ़ाना ही गलत साबित हुआ । हाँ वृद्ध ,रिटायर्ड पत्रकारों को राज्य सरकारों को पेंशन देने तक ही सीमित रखा जाता तो अधिक बेहतर होता। जहां तक पत्रकारों को पैसे बांटने की शुरुआत है मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अपनी सरकार के अंतिम काल मे की। बड़ी संख्या में सम्पादकों प्रभावशाली संवाददाताओ, अखबार मालिकोंको लम्बी लम्बी धनराशि बांटी गयी जिसकी चपेट में कुछ संस्थाएं भी आई जिनमे हम जैसों की संस्था का नाम भी उछाला गया जबकि मायावती ने मुख्यमंत्री बनते ही रोक दिया था लेकिन बद से बदनाम बुरा। मुझे लखनऊ छोड़ कर बाहर जाना पड़ा। बाद में उसी अखबार ने बुलाकर कहा कि आप का गलत उल्लेख किया गया। (मुख्यमंत्री मायावती के सचिव ने एक पत्र भी जारी किया कि इस संस्था को पैसा नही जारी किया गया वह पत्र अभी तक सुरक्षित हैं।) उसी अखबार ने मुझे सम्पादक भी बनाया। पर कुल मिलाकर 50 साल के अखबारी जीवन के उपलब्धि इतनी रही कि सन 2000 में सम्पादक का पद छोड़ने के बाद इक्कीस साल बीतने के बावजूद स्वतंत्रभारत अखबार पर डेढ़ साल का वेतन, ग्रेच्युटी, अन्य बकाए अभी भी पाना शेष हैं। पीएफ से 653 रु महीने की पेंशन अवश्य है जिससे कहीं अधिक वृद्धावस्था पेंशन सरकार देती है(मुझे नहीं)। इसके बाद भी कभी किसी के आगे हाथ नही फैला सका । वैसे भी कौन मदद करता है किसी की।

कोरोना काल मे मान्यता समिति के किसी पदाधिकारी ने किसी बुजुर्ग पत्रकार का हाल चाल पूछा हो, इसकी जानकारी किसी को नही है। हां दो युवा पत्रकारों ज़ाफर और पवन ने आधी रात को अवश्य दवा पहुंचाई और मुश्किल से पैसे लिए। यही कहते रहे कि बाद में दे दीजिएगा। उनका आभार ! खैर यह बिना मांगी गई सफाई है। इस बीच जाने कितना पानी बह चुका है।

ऐसे में अब हमारे सामने कोई विकल्प है भी या नहीं? लेकिन मूल प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। हम अपनी पहचान खो चुके हैं। सबसे बड़ा दुख यही है। मान्यता समिति का चुनाव हो भी जाये। तब भी हमारे चेहरे पर दाग देखने वाला अब कोई नही है। मुखौटा लगाने के लिए मास्क है न हमारे पास । और हम पुराने पत्रकारों से दो गज क्या कई मीटर की दूरी के चलते सभी सुरक्षित हैं।

मुझे याद है कि विधान सभा की प्रेस दीर्घा में एक बार नेशनल हेराल्ड के चीफ रिपोर्टर को देख कर हम लोग अपनी आगे की सीट छोड़ कर पीछे चले गए थे। जबकि साल भर पहले मीडिया सेंटर की प्रेस कांफ्रेंस में एक खाली सीट पर जैसे ही बैठा कुछ नए पत्रकारों ने पुछा -किस अखबार में हो? मेरे कहने पर अब किसी अखबार में नही हूँ पर वरिष्ठ पत्रकार हूँ । मुझे कहा गया उठो यहां से । वरिष्ठ पत्रकार सभी हैं। मैं मुस्कराकर मीडिया सेंटर से बाहर चला आया। लगा हम भी अपनी पहचान खोते जा रहे हैं। हमारी ईनिंग खत्म हो चुकी है। अब हम सिर्फ इस्तेमाल भर के लिए हैं।

यूज़ एंड थ्रो ! और हमे मजबूरन वोट के लिए ही याद किया जाता है !


Published: 08-03-2021

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