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राष्ट्रीय किसान दिवस : किसान संगठनो का आंदोलन

23 दिसंबर किसान नेता चौधरी चरण सिंह की जयंती 'राष्ट्रीय किसान दिवस' के रूप में मनाया जाता है. 28 जुलाई 79 से 14 जनवरी 80 तक भारत के पांचवे प्रधानमन्त्री रहे चौधरी साहब की किसानो के प्रति एक स्पष्ट दृष्टि थी

किसान संगठनो का आंदोलन
किसान संगठनो का आंदोलन

डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी : प्रयागराज : 23 दिसंबर किसान नेता चौधरी चरण सिंह की जयंती 'राष्ट्रीय किसान दिवस' के रूप में मनाया जाता है. 28 जुलाई 79 से 14 जनवरी 80 तक भारत के पांचवे प्रधानमन्त्री रहे चौधरी साहब की किसानो के प्रति एक स्पष्ट दृष्टि थी. 1952 में चौधरी साहब के प्रयास से ही जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ. 1954 में उन्होंने उत्तर प्रदेश में भूमि संरक्षण कानून पारित कराया. 1957 के कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने नेहरू जी के सहकारी खेती के प्रस्ताव का मुखर विरोध किया जिससे यह प्रस्ताव पारित न हो सका. उनकी प्रसिद्ध पुस्तक-एबोलीशन ऑफ़ जमींदारी, लीजेंड प्रोपराइटशिप और इंडियाज पावर्टी और इटस सोल्यूशन में किसानों और भारतीय कृषि पर प्रकाश डाला गया है. 2020 के राष्ट्रीय किसान दिवस का विशेष महत्त्व इसलिए हो गया है कि तीन कृषि कानूनों की वापसी के लिए दिल्ली की सीमा पर किसान आंदोलन चल रहा है तथा भारतीय किसान संगठनो ने देश से अपील किया है कि वे आज किसानों के आंदोलनरत रहने के समर्थन में दोपहर का भोजन न पकाएं. इस आंदोलन और सरकार के कानून का सबसे फॅसा हुआ पेंच एमएसपी -न्यूनतम समर्थन मूल्य है. अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति की मांग है की सरकार एमएसपी से कम कीमत पर खरीदने को अपराध घोषित करे. दूसरी ओर पीएम और कृषि मंत्री बार बार ट्वीट कर रहे हैं कि एमएसपी की व्यवस्था जारी रहेगी, सरकारी खरीद जारी रहेगी. कुछ तो कारण होगा कि एमएसपी के सम्बन्ध में कानून से कम पर कुछ मानने को किसान तैयार नहीं है. किसी फसल की एमएसपी पूरे देश की एक ही होती है. भारत सरकार का कृषि मंत्रालय कृषि लागत और मूल्य आयोग की अनुशंसा पर एमएसपी तय करता है. इसी के आधार पर तेईस फसल की खरीद की जाती है जिसमे धान, गेहूं, ज्वार, बाजरा, मक्का, मूंग, मूंगफली, सोयाबीन, तिल और कपास जैसी फसलें सम्मिलित हैं. बिडम्बना यह है कि देश के केवल छह प्रतिशत किसान ही एम एस पी से लाभान्वित होते रहे हैं जिसमे अधिक प्रतिशतता हरियाणा और पंजाब के किसानो की है जिस कारण इन राज्यों के किसान ही विशेष उद्वेलित हैं. किसान और सरकार के बीच जो सार्थक बातचीत नहीं हो पा रही है उसके मूल में एम एस पी का गूढ़तत्व ही है. किसान एमएसपी पर कानून बनाने की बात पर अड़े हैं जबकि अंदर की बात यह है की जैसी परिस्थितियां हैं उसमे सरकार एमएसपी पर कानून बना ही नहीं सकती. चंडीगढ़ के सेंटर फार रिसर्च इन रूरल एंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट के प्रोफ़ेसर आर यस घुमन ने बीबीसी से बातचीत के दौरान उन कठिनाइयों का उल्लेख किया जिसके कारण सरकार किसानो के एमएसपी सम्बन्धी मांग पूरी नहीं कर पाएगी. सबसे बड़ी कठिनाई है फसलों के गुणवत्ता के मानक कैसे तय हो पाएंगे. क्या सब धान बाइस पसेरी ही होंगे ? जो फसल मानक पर खरे नहीं उतर पाएंगे उनका क्या होगा. दूसरी कठिनाई है कि कतिपय सरकारी कमेटियों की संस्तुति है जिसमे शांताकुमार और नीति आयोग की सिफारिश महत्वपूर्ण है कि धान और गेहूं की खरीद नहीं होनी चाहिए. यह वह भय है जो किसानो को डरा रहा है कि जब फसल की खरीद ही नहीं होगी तो एमएसपी का क्या होगा. अन्य कठिनाइयां भी हैं जैसे क्या निजी कम्पनियाँ एमएसपी पर फसल खरीदेगी. क्या सरकार उन्हें इसके लिए बाध्य कर पाएगी ? अर्थशास्त्री प्रो घुमन इसके लिए एक टर्म का प्रयोग करते है-मोनोस्पानि जिसका अर्थ है की कुछ एक कम्पनियाँ आगे आने वाले दिनों में अपना एक गठजोड़ बना लेगी जो कीमत तय कर किसान के फसल की खरीद करेगी. किसान संगठनो का यह मत निराधार नहीं है कि एमएसपी के कानून से कंपनियों के ऊपर खरीदमूल्य का नियंत्रण रहेगा. निश्चय ही एमएसपी सुरक्षा वाल्ब है यदि यह प्रभावी न रहेगा तो कम्पनी डिमांड सप्लाई का खेल खेलने को स्वतन्त्र होंगे. बाजार को कंपनी नियंत्रित कर सकेंगी. किसान की हैसियत बाजार नियंत्रण की नहीं हो पाएगी. किसान को तो अपनी फसल बेचने की गरज रहेगी उसके पास भण्डारण की सुविधा नहीं है और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे नगदी चाहिए. भारत में नाना प्रकार के किसान हैं इनकी कोटि निर्धारित करना बहुत मुश्किल है. हर प्रान्त में किसानो की स्थिति एक दूसरे से भिन्न है. हर फसल के किसान की समस्या अलग अलग है. देश में 85 प्रतिशत ऐसे किसान हैं जिनके पास जोत की जमीन पांच एकड़ से भी कम है. भूमिहीन किसान जो बटाई पर किसानी करते हैं उनकी समस्या अलग है. मजदूर किसान की तो कोई गणना ही नहीं है. सभी प्रकार के किसान इन कानूनों और व्यवस्था से प्रभावित होते हैं पर ये 85 प्रतिशत किसान जैसे तैसे जिंदगी गुजारने वाले ऐसे किसान आंदोलन में सहभागी होने की हिम्मत नहीं जुटा सकते. किसान संगठन तीनो कानून को समाप्त करने की मांग से पीछे नहीं हट रहा है तो सरकार कानून बनाये रखने की हठधर्मिता पर तमाम हथकंडे अपना कर आंदोलन की हवा निकलने के उपक्रम में है. यह लोकतान्त्रिक स्थिति नहीं कही जा सकती. किसान और सरकार को विश्वास के साथ कृषि अर्थशास्त्रियों के साथ बैठकर किसान के व्यापक हित में आगे बढ़ना चाहिए. इसी में राष्ट्रीय किसान दिवस की सार्थकता है.


Published: 23-12-2020

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