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क्या वायरस-वायरस के मध्य महायुद्ध से कोरोना से मुक्ति संभव है ?

डा. चन्द्रविजय चतुर्वेदी : प्रयागराज : पृथ्वी पर करोड़ों वर्ष से निरंतर एक महायुद्ध चल रहा है. जीव जीव के बीच, जीव और अर्द्धजीव वायरस के बीच, जिसमे हर रोज करोड़ों ,अरबों की संख्या में जीव ,अर्द्धजीव एक दूसरे को मारते मरते हैं. इस महायुद्ध में तमाम जीवो

क्या वायरस-वायरस के मध्य महायुद्ध से कोरोना से मुक्ति संभव है ?
क्या वायरस-वायरस के मध्य महायुद्ध से कोरोना से मुक्ति संभव है ?
डा. चन्द्रविजय चतुर्वेदी : प्रयागराज : पृथ्वी पर करोड़ों वर्ष से निरंतर एक महायुद्ध चल रहा है. जीव जीव के बीच, जीव और अर्द्धजीव वायरस के बीच, जिसमे हर रोज करोड़ों ,अरबों की संख्या में जीव ,अर्द्धजीव एक दूसरे को मारते मरते हैं. इस महायुद्ध में तमाम जीवों का सर्वनाश हो चुका है. वर्ष २०२० में इस महायुद्ध की जो अनुभूति मानव समाज को हुई वह कदाचित इसके पूर्व कभी नहीं हुई होगी. मानव समाज को इस महायुद्ध में सक्रियता से भाग लेना पड़ रहा है. अभी तो युद्ध जारी है. अतः यह आवश्यक है कि एक महायुद्ध के सभी पहलुओं-तकनीकी, कूटनीतिक, राजनितिक, आर्थिक पर आवश्यक विचार विमर्श होते रहे. इस महायुद्ध के महानायक वायरस के सम्बन्ध में कुछ समझना होगा, जो न तो पूर्ण जीवित सेल है और न ही अजीवित पदार्थ का सूक्ष्म कण ही. अतः इसे अर्द्धजीव भी कहा जाता है. रासायनिक उद्विकास (इव्योल्युशन) की यात्रा में जब न्यूक्लिइक अम्ल, डी एन ए ,आर एन ए तथा प्रोटीन पृथ्वी पर अस्तित्व में आया उस समय पृथ्वी का वातावरण अनाक्सी अर्थात आक्सिजनविहीन था. इस वातावरण में न्यूक्लिइक अम्ल और प्रोटीन के सम्मिश्रण से न्यूक्लियोप्रोटीन की एक संरचना तो बन गई पर यह आगे उद्विकास की गति से बाहर हो गया. धरती पर सूक्ष्म अर्ध्दजीव कण के रूप में विराजमान रहा. प्रेतग्रस्त लाखों वर्ष निष्क्रिय पड़ा रहा. आगे की रासायनिक उद्विकास की यात्रा में जब पृथ्वी का वातावरण आक्सीजनमय हुआ तो न्यूक्लियोप्रोटीन की संरचना से ही जीवित कोशिका अस्तित्व में आयी. एक कोशीय फिर बहुकोशीय जीवाणु, कीटाणु, बैक्टीरिया बने. जलचर ,स्थलचर ,जलस्थलचर जीव बने. पशुपक्षी, कीट पतंग और फिर मनुष्य भी अस्तित्व में आया, एक बुद्धि संपन्न प्राणी. पृथ्वी पर जब एककोशीय जीव अस्तित्व में आया होगा कदाचित तभी से प्रेतग्रस्त वायरसों का युद्ध भी प्रारम्भ हो गया होगा क्योंकि उन्हें मेहमान होस्ट जीवित सेल अपने परिवार की वृद्धि हेतु उपलब्ध हो गया था. यही अस्तित्व का संघर्ष है जिससे जीवजगत अस्तित्व में आया है. कोरोना वायरस के इस युद्धकाल में अध्ययन करते हुए एक वायरस बैक्टीरियोफाज जिसे संक्षेप में फाज भी कहते हैं स्मृतिपटल पर कौंधने लगा. कोरोना वायरस सहित तमाम वायरस जो महामारी के कारण बने है और मानव प्रजाति को गंभीर नुकसान पहुँचाया है जिनसे प्राणिजगत को भंयकर महायुद्ध करना पड़ा है. उनके तुलना में यह फाज वायरस मानव के लिए कल्याणकारी रहा है. इस वायरस फाज का अर्थ ही है बैक्टीरिया का दुश्मन. इस धरती पर बैक्टीरिया ने मानव के साथ बहुत विकराल युद्ध किये हैं जिसमे मानवजन की बहुत क्षति हुई है. इस युद्ध में बैक्टीरियोफाज वायरस मनुष्यों का बड़ा सहायक रहा है. यह वायरस बहुत ही अदभुत है. पृथ्वी के कण कण में जल में, थल पर, मनुष्य के भीतर, बाहर सर्वत्र भगवान के सदृश्य विराजमान है. सम्पूर्ण पृथ्वी पर जितनी संख्या समस्त जीव जंतुओं को मिलाकर होगी उतनी संख्या केवल फाज वायरस की है. करोड़ों वर्ष से यह फाज बैक्टीरिया का भक्षण करता हुआ मानव के अस्तित्व की रक्षा करता आ रहा है. फाज की जानकारी वायरस के रूप में बीसवीं सदी के द्वितीय दशक में हो गई थी. परन्तु इसकी विस्तृत जानकारी 1995 में फ्रेडरिक डब्लू दवोरट ने दी. यद्यपि इसके पूर्व 1896 में अर्नेष्ट हनबारी हैकिंग ने यह बतलाया था कि भारत की गंगा, यमुना नदियों में एक जीवाणुरोधी पदार्थ पाया जाता है जो बहुत ही बारीक है और साधारण फ़िल्टर से पास हो जाता है. भारतियों की युगों से आस्था रही है की गंगा यमुना पवित्र नदियां हैं ,रोगनाशक ,स्वास्थवर्धक हैं. कालांतर में वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हुआ की गंगा, यमुना की पवित्रता के मूल में फाज वायरस प्रमुख है जो तमाम रोगों की बैक्टीरिया का भक्षण करता रहा है. ये नदियां फाज के प्रमुख स्रोत युगों से रहीं हैं. बिडम्बना यह है की देवी तुल्य माँ सदृश्य ये नदियां भीषण प्रदुषण से, मलमूत्र के प्रवाह से गंदे नाले का स्वरूप ग्रहण करती जा रहीं हैं जहाँ फाज की मात्रा अब नगण्य होती जा रही है. लखनऊ के विष विज्ञान अनुसन्धान संस्थान आई आई टी आर के एक शोध में बताया गया है की गंगोत्री से ऋषिकेश तक गंगाजी में रोगाणुओं को मारने की क्षमता है. पर प्रदूषण के उपरांत निरंतर कम होती जा रही है. दुर्भाग्य है कि हम जानबूझ कर अपनी चेतना और प्राणशक्ति को नष्ट करते जा रहे हैं. मैं किसी प्रयोगशाला का वैज्ञानिक नहीं हूँ और न ही वायरोलॉजी, बैक्टिरियोलोजी जैसे वैज्ञानिक शाखाओं का विद्वान् ही हूँ. विज्ञान का एक अदना सा विद्यार्थी हूँ. वैज्ञानिक विषयों के अध्ययन में थोड़ी रूचि भी है. जो कुछ भी समझ पाता हूँ उसे साहित्यिक पुट के साथ जानने जनाने का भाव रखता हूँ. इस विधा में संम्भावनाओं की चर्चा अस्वाभाविक नहीं होती. दुनिया के अन्य देशों की भांति भारत भी वैज्ञानिक युग के पूर्व लाखों वर्ष से बैक्टीरिया वायरस से जूझता रहा है. पर वह अपने प्राकृतिक वातावरण और वनस्पतियों के औषधीय गुणों तथा गंगा यमुना जैसी पवित्र नदियों के कारण कभी भी दीनता की स्थिति में नहीं आया. आज यह महत्वपूर्ण प्रश्न है कि यदि मानव को बैक्टीरिया और वायरस के साथ जीना है तो अपनी अमूल्य प्राकृतिक सम्पदा को बचाते हुए प्रकृति के साथ तादात्म्य बनाते हुए जीवन शैली विकसित करनी होगी जिसमे सहयोगी वायरस फाज जैसों की रक्षा करनी होगी. इस लेख का मंतव्य आज के आपत्तिकाल में संम्भावनाओं की तलाश ही है. बैक्टीरियोफेज सभी वायरसों से सशक्त और सर्वव्यापी है. एंटीबायटिक आगे चलकर वैक्टीरिया को समाप्त कर सकने में कितने कारगर हो सकेंगे वैज्ञानिक जगत में प्रश्न चिह्न उभरने लगा है. शक्तिशाली बैक्टीरिया सुपरबग जो एक साथ बैक्टीरिया वायरस पैरासाइट ,फंगस है, इसे समाप्त करने में अत्याधुनिक एंटिबाइटिक सफल नहीं हो पा रहे हैं. सुपरबग की मृत्यु दर बहुत अधिक है. इसके इलाज में अंततः फाज थैरपी का सहारा लिया गया जिसमे एंटीबायटिक के प्रयोग के साथ साथ ही फाज को भी मानव शरीर में प्रवेश कराया गया. यद्यपि यह प्रयोग सफल रहा पर यह थैरपी न जाने क्यों विकसित नहीं की जा रही है और न ही इसपर गंभीरता से शोध ही आगे बढ़ रहा है. फाज थैरपी पर अध्ययन के दौरान एक बात उभर कर आती है कि क्या यह संम्भव नहीं है कि मानव के सहयोगी वायरस फाज का संघात कोरोना वायरस पर कराया जाए. क्या वैज्ञानिक वायरस वायरस महायुद्ध करा सकते हैं ? कदाचित लाखों वर्ष पूर्व से प्रकृति में ऐसा होता रहा हो जिससे मानव की बुद्धि अनभिज्ञ रही हो. इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि पहले भी कोरोना वायरस रहा होगा और फाज भी रहा होगा. इस विषय को ढूंढते ढूंढते एक लेख वायरस युद्ध पर मिल गया. टेक्सास विश्विद्यालय के प्रो मैथ्यू यल पफ और उनके साथियों का एक लेख वायरस वार २०१६ में अमेरिका के पियर जर्नल में प्रकाशित हुआ है जिन्होंने इस संभावना को व्यक्त किया है कि एक वायरस का प्रयोग दूसरे वायरस के प्रसार को रोकने के लिए किये जाने पर गंभीर शोध की आवश्यकता है. संभव है आगे आने वाले दिनों में कोरोना वायरस के महायुद्ध में मानव का सेनापति बैक्टीरियोफाज ही हो. इसके लिए आवश्यक है कि गंगा, यमुना जैसी पवित्र नदियों को वास्तविक रूप से प्रदूषण पुक्त करते हुए इसकी अविरलता को बरकरार रक्खा जाए.

Published: 30-05-2020

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