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राजस्थान में जातिवादी फूहड़पन का नंगा नाच

उपेन्द्र प्रसाद : नयी दिल्ली : सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने के लिए राजस्थान में जो हिंसा हुई है, वह अभूतपूर्व है. हिंसा भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए कोई नई घटना नहीं है. अपनी मांगों के समर्थन में और सरकार के किसी फैसले के खिलाफ हिंसक आंदोल

राजस्थान में जातिवादी फूहड़पन का नंगा नाच
राजस्थान में जातिवादी फूहड़पन का नंगा नाच
उपेन्द्र प्रसाद : नयी दिल्ली : सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने के लिए राजस्थान में जो हिंसा हुई है, वह अभूतपूर्व है. हिंसा भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए कोई नई घटना नहीं है. अपनी मांगों के समर्थन में और सरकार के किसी फैसले के खिलाफ हिंसक आंदोलन खूब होते रहे हैं. आरक्षण के मसले पर अब तक शायद सबसे ज्यादा हिंसा हुई है. राजस्थान में भी इस तरह की हिंसा खूब हुई है. ओबीसी आरक्षण के लिए वहां जाट हिंसक आंदोलन किया करते थे. इसमें वे सफल भी हुए और वहां के दो जिलों को छोड़कर अन्य सभी जिलों के जाट अब ओबीसी हैं. फिर गुज्जरों की हिसा होने लगी. जाटों के ओबीसी में शामिल होने के कारण उनके लिए उस श्रेणी में जाटों से प्रतिस्पर्धा करना कठिन हो गया. तो फिर गुज्जरों ने अपनी जाति को अनुसूचित जाति में शामिल करवाने के लिए आंदोलन शुरू कर दिया. उनके आंदोलन कई बार हुए. उसमें कई लोग मारे गए. सार्वजनिक संपत्ति का भारी नुकसान हुआ. सड़कों को जाम किया गया और रेलगाड़ियों को रोका गया. गुज्जरों के आंदोलन के विरोध में मीणा समुदाय भी सड़क पर आ गया. वह वहां पहले से ही अनुसूचित जाति में शामिल हैं और उन्हें यह मंजूर नहीं कि गुज्जर भी उनकी श्रेणी में आ जाय. समय समय पर राजपूतों और ब्राह्मणों ने भी ओबीसी में शामिल होने के लिए आंदोलन किए. इसलिए राजस्थान जाति आंदोलन की हिंसा का पिछले कुछ दशकों से साक्षी रहा है लेकिन कोई जाति विशेष अपनी जाति के नेता को मुख्यमंत्री बनाने के लिए हिंसा करे और सार्वजनिक या निजी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाए, ऐसा न तो राजस्थान में और न ही किसी अन्य प्रदेश में देखा गया था. राजनैतिक कार्यकर्ता अपनी बात मनवाने के लिए नेतृत्व पर दबाव डालते रहे हैं. इसके लिए वे नेताओं के घरों और पार्टी कार्यालयों में भी प्रदर्शन करते रहे हैं. कभी कभी उनका प्रदर्शन हिंसक भी हो जाता है, लेकिन उनकी हिंसा उनकी अपनी पार्टी तक ही सीमित रहती है. टिकट न मिलने पर अपनी पार्टी कार्यालयों में उनके द्वारा तोड़फोड़ की घटनाएं भी देखने को मिलती हैं. नेताओं का घेराव भी देखा जाता है और कभी कभी नेताओं की पिटाई भी हो जाती है, लेकिन ऐसा कभी नहीं देखा गया कि वे लोग सड़क पर आ गए और उन लोगों पर भी हमला करना शुरू कर दिया, जिनका न तो उनकी पार्टी से कोई संबंध है और न ही उनके नेता से. लेकिन राजस्थान में यह सब हुआ. सचिन पायलट गुज्जर समुदाय से हैं और राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमिटी के नेता भी. पार्टी को मजबूती प्रदान करने में उनकी भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता और इसके कारण मुख्यमंत्री पद पर किया गया उनका दावा गलत भी नहीं लेकिन कांग्रेस के अंदर मुख्यमंत्री के चयन का अपना अलग अंदाज रहता है. सैद्धांतिक रूप से विधायक दल के नेता का चुनाव पार्टी के विधायक ही करते हैं और पार्टी के बहुमत में रहने या सरकार बनाने की स्थिति में वह नेता ही मुख्यमंत्री बनता है लेकिन व्यवहार में कांग्रेस में नेता आलाकमान द्वारा तय होता है. आलाकमान विधायकों की इच्छा और अपनी पसंद-नापसंद का ख्याल करते हुए नेता तय कर देता है और विधायक दल में उसका औपचारिक चुनाव हो जाता है. राजस्थान में सचिन पायलट और अशोक गहलौत के बीच मुख्यमंत्री बनने के लिए होड़ लगी हुई थी. दोनों राहुल गांधी के बेहद करीबी रहे हैं. गहलौत 10 साल तक राजसथान के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं और सचिन पायलट तो मुख्यमंत्री पद पर दावा करने के समय पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी थे. इसलिए दोनों के दावे मजबूत थे और यह कहा नहीं जा सकता कि किनका दावा ज्यादा मजबूत था. चूंकि विधायकों के बीच नेता के चुनाव के लिए मतदान भी नहीं हुए, इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि इन दोनों में से किसके साथ ज्यादा विधायक थे. जब विधायक दल ने सर्वसम्मति से नेता चयन का अधिकार राहुल गांधी को दे दिया, तो उनकी पसंद का सम्मान किया जाना चाहिए था. पर गुज्जरों ने उसी प्रकार की हिंसा शुरू कर दी, जैसा वे अनुसूचित जाति की श्रेणी में अपने को शामिल कराने के लिए कर रहे थे. आपको आरक्षण मांगना है मांगिए. उसके लिए आंदोलन करना है कीजिए. यदि हिंसक हो जाते हैं, तो उसका परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहिए लेकिन अपनी जाति के व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाने के लिए आंदोलन कर जनजीवन को अस्त-व्यस्त करना किसी भी मायने में उचित नहीं हिंसा किसी भी हालत में निंदनीय है और जाति के व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाने के लिए किया गया यह उपद्रव तो लोकतंत्र को लहुलूहान करने वाला है. भारतीय लोकतंत्र में जाति एक बड़ा फैक्टर है. जाति के आधार पर अधिकांश उम्मीदवार तय किए जाते हैं. चुनाव में उम्मीदवार संसाधन और कार्यकर्ता भी जाति के आधार पर प्राप्त करते हैं और वोट भी जाति के आधार पर मांगे जाते हैं. कुछ जातियों ने तो अपने अपने नाम की पार्टियां तक बना रखी हैं और अनेक पार्टियां तो सिर्फ जाति आधारित ही हैं. जाति आधारित फूहड़पन को हमारा देश देख रहा है. हम देख चुके हैं कि जिस जाति के व्यक्ति को किसी राज्य का मुख्यमंत्री बनाया जाता है, तो उसका जश्न उसकी जाति के लोग किस तरह मनाते हैं. और अब राजस्थान में यह देख चुके हैं कि अपनी जाति के व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाने के लिए किस तरह उत्पात मचाया जाता है. इसके कारण यह सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि क्या हमारा लोकतंत्र अब पूरी तरह जातिवादी लोकतंत्र बन गया है ? और यह भी सवाल उठता है कि इस तरह का लोकतंत्र कब तक चलेगा और इस जातिवादी लोकतंत्र का क्या भविष्य है ? यह सच है कि समतवादी लोकतंत्र और जाति आधारित विषमतावादी समाज के बीच आजादी के बाद से ही संघर्ष चल रहा हैऔर लोकतंत्र और जाति के बीच चल रहे इस संघर्ष में जाति लगातार लोकतंत्र पर हावी होती जा रही है. यह स्थिति बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है और जिसे भी लोकतंत्र से प्रेम है, उसे इस तरह की जातिवादी प्रवृतियों के खिलाफ मुखर होना ही होगा. अन्यथा हमारा लोकतंत्र सुरक्षित नहीं है.

Published: 16-12-2018

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