भारतीय संस्कृति की विशिष्टता प्रकृति के साथ तादात्म्य है |भारतीय मानस में गंगा -यामुना जैसी नदियों के प्रति आस्था का स्वरूप भौतिक और आध्यात्मिक रहा है |इन नदियों के साथ हमारी देवी प्रगाढ़ता में कभी व्यवधान नहीं आया ,हमारे साथ इनका जीवित सम्बन्ध रहा है |माघ मकरगत जब रवि होई ,तीरथपतिहिं आब सब कोई –तीर्थराज प्रयाग के आस्थामय इस अमृत -महोत्सव में ,ऋषियों ,महर्षियों ,पुरावेत्ताओं ,धर्माधिकारियों ,दार्शनिकों सहित समाज के अंतिम व्यक्ति की उपस्थिति का दर्ज होना किसी अंध -श्रद्धा की परिणति मात्र नहीं कहा जा सकता |यह सहस्त्रों वर्ष की वह निरंतरता है जिसके मूल में गंभीर शास्त्रीयएवं वैज्ञानिक मंतव्य अन्तर्निहित हैं |प्रयाग के संगम तट पर
जुड़ने वाले इस मेले ने भारत की उस सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध किया है ,जिस धरोहर ने प्रकृति के प्रत्यक्ष स्वरूप से ज्ञान और चेतना में सामंजस्य स्थापित कर ऐसी संस्कृति विकसित की जिसमे ज्ञाता ज्ञान की विवेचना करके उसे ,उसे परिष्कृत विचारों और भावनाओं के माध्यम से वास्तविक व्यवहारों में संप्रेषित करता रहा है |इस सांस्कृतिक विरासत के कारण भारत ,अपने जिस गौरव की पराकाष्ठा के लिए विख्यात है वह गौरव है ,समृद्ध ज्ञान और समरसता का अमृतत्व जिससे भारतीय मन और भारतीय आदर्श सदाशयता और आत्मबलिदान की भूमि पर पुष्पित पल्लवित हुआ |
परम्परागत भारतीय समाज की आर्थिक ,सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्थाएं ,जिन शाश्वत सिंद्धांतों पर आधारित हैं ,वे किसी न किसी रूप में प्रकृति से जुडी हुई हैं |प्राणदायिनी विशाल नदियाँ ,पर्वत और वन ऐसे पुण्यप्रद दिव्य स्थल रहे हैं जो ऋषियों ,महर्षियों और महापुरुषों के अपूर्व धैर्य ,साहस ,पुन्य और सौख्य के अनेक प्रसंगों के माध्यम से निरंतर चेतना का संचार करते रहे हैं |ये विशिष्ट स्थल अपनी पवित्रता के कारण तीर्थ कहलाये –तरति अनेन इति तीर्थं –अर्थात जिसके द्वारा मनुष्य इस अपार संसार से तर जाए |
युगों से भारत की सांस्कृतिक एकता को बनाए रखने में ,तीर्थ स्थानों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है |कई राज्यों में विभाजित ,अनेक जातियों में बंटा हुआ ,संकीर्णताओं में फंसा हुआ भारतवासी यदि कहीं आध्यात्मिक चेतना प्राप्त करता है तो वे हैं तीर्थस्थल |इन तीर्थस्थलों में धर्म और अध्यात्म के समागम ने क्षुद्र मानव में न केवल उच्चतर नैतिकऔर आध्यात्मिक मूल्यों का संचरण किया बल्कि उत्तर –दक्षिण ,पूर्व– पश्चिम की सांस्कृतिक विविधताओं को एक स्थल पर बैठा दिया |
भारत के तीर्थों में प्रयाग की प्रतिष्ठा महाभारत काल से ही तीर्थराज के रूप में होती रही है |वनपर्व में उल्लेख है की प्रजापति ब्रह्मा ने यहाँ प्राचीन काल में यग्य किया इसी से यज धातु से प्रयाग बना |स्कन्द पुराण में प्रयाग का अर्थ –यागेभ्यः प्रकृष्टह –अर्थात जो यज्ञों से बढ़कर है |अथवा –प्रकृष्ट यागेभ्यः –अर्थात जहाँ उत्कृष्ट यग्य है के रूप में किया गया है |ब्रह्मपुराण में प्रयाग को प्रकृष्टता के कारण तीर्थराज कहा गया है |प्रयाग ब्रह्मा की वेदियों में बीच वाली वेदी है ,अन्य वेदियों में -कुरुक्षेत्र उत्तर वेदी है तथा गया पूर्व वेदी है |महाभारत में तीर्थराज प्रयाग को पवित्रतम और श्रेष्ठतम बताते हुए सोम वरुण और प्रजापति का जन्मस्थान कहा गया है |
तुलसी बाबा ने –को कहि सकहि प्रयाग प्रभाऊ–कहते हुए तीर्थराज की महिमा में लिखा –
सचिव सत्य श्रद्धा प्रिय नारी ,माधव सरिस मितु हितकारी |चारि पदारथ भरा भंडारु ,पुन्य प्रदेश देसअति चारु --अर्थात तीर्थराज प्रयाग का मंत्री सत्य है ,श्रद्धा उनकी प्यारी स्त्री है तथा माधव सरीखे हितैषी मित्र हैं |तीर्थराज का भण्डार चार पदारथ -अर्थ ,धर्म ,काम ,मोक्ष से भरा हुआ है |यह पुन्य प्रदेश बहुत सुन्दर है |शास्त्रों में कहा गया है की प्रयाग क्षेत्र का विस्तार परिधि में पांच योजन है और ज्यों ही कोई इस क्षेत्र में प्रवेश करता है उसके प्रत्येक पद पर अश्वमेध का फल मिलता है |
प्रयाग की प्रधानता और इसका तीर्थराज होना इसलिए है की यह एक साथ वैष्णव क्षेत्र है ,शैव क्षेत्र है ,शाक्त क्षेत्र है ,ऋषि क्षेत्र है ,,नाग क्षेत्र है ,बौद्ध क्षेत्र है ,जैन क्षेत्र है ,योग क्षेत्र है , सितासित क्षेत्र है तथा त्रिवेणी क्षेत्र है |
अज्ञः सुविग्याःप्रभावोपिज्ञाह सप्त स्व्पिद्धाह सुकृतान भिज्ञा,
विग्यापयांतः सततं हि काले स तीर्थराजो जयति प्रयागः |
अर्थात मुर्ख ,पंडित ,स्वामी यग्य ,ग्यानी तथा समस्त वर्गों के पुन्यवान जिनके यश का निरंतर विज्ञापन करते रहते हैं ऐसे तीर्थराज प्रयाग की जय हो |
सितासिते यत्र तरंग चामरेंनद्यो विभाते मुनि भानु कन्यके
नीलात्पत्रम वट एव साक्षात स ती र्थराजो जयति प्रयागः
अर्थात ,श्री गंगा और यमुना जी के नीले और सफ़ेद रंग की जिनके चंवर है तथा अक्षयवट ही जिनके नीले रंग का छत्र है ऐसे तीर्थराज प्रयाग की जय हो |गंगा -यमुना के संगम पर सरस्वती अन्तःसलिला होकर मिलती है ,ऐसा विश्वास प्रयाग को पवित्र त्रिवेणी के रूप में प्रतिष्ठित करता है –यत्र गंगा च यमुना च तत्र सरस्वती |यद्यपि वेद , रामायण ,महाभारत या कालिदास की रचनाओं से इस तथ्य की पुष्टि नहीं होती की प्रयाग में गंगा -यमुना के साथ ही सरस्वती नामक किसी नदी का संगम होता है तथापि तुलसी बाबा मानस के बालकाण्ड में प्रयागराज की महिमा का वर्णन करते हुए सरस्वती की धारणा की पुष्टि करते हैं –
मुद मंगलमय संत समाजू ,जो जग जंगम तीरथराजू
रामभक्ति जहँ सुरसरि धारा सरसई ब्रह्म बिचार प्रचारा |
बिधि निषेधमय कलिमल हरनी करम कथा रबिनंदनि बरनि
हरिहर कथा बिराजति बेनी सुनत सकल मुद मंगल देनी |
तीर्थराज प्रयाग का संत समाज आनंद मंगल से परिपूर्ण है |रामभक्ति ही गंगा की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार ही सरस्वती की धारा है |विधि तथा निषेधरूपी जो कर्मकांड की कथा है,कलिकाल के पापों को हरनेवाली ,वही सूर्यपुत्री यमुना जी हैं| भगवान विष्णु और शिव जी की कथा ही त्रिवेणी रूप से सुशोभित है जो मंगल प्रदान करने वाली है |
तीर्थराज प्रयाग में गंगा -यमुना का संगम प्रकृति का अदभुत संयोग है |वाल्मीकि रामायण में वर्णित है कि प्रयाग संगम के समीप पहुँचने पर राम कह उठे –
नूनं प्राप्ताः स्मसम्भेदम गंगाय्मुनायोर्वयम,तथाहि श्रूयते शब्दों वारिनोर्वारिघर्शजः|
चित्रकूट का रास्ता बताते हुए महर्षि भारद्वाज ने राम से कहा –गंगायमुनयोः संधिमासाद्यमनुजर्ष भौ ,कालिन्दिम्नुगच्छेताम नदीम पश्चंमुखाश्रिताम |
वेग से बढ़ती हुयी गंगा प्रयाग में आकर किल्लोल करती हुयी , यमुना को बाँहों में समेटने के लिए पश्चिममुखी हो जाती है |
कालिदास ने रघुवंश में उल्लेख किया है –राम लंका विजय के उपरांत पुष्पक विमान से ही प्रयाग में गंगा यमुना के अदभुत संगम को सीता को दिखलाते हुए राम ने कहा –
समुद्र्पत्न्योर्जल्संनिपाते पुतात्म्नामत्र किलाभिषेकात ,तत्वावबोधेनविनापि भुय्स्तानुत्याजाम नास्ति शारीर बन्धः |अर्थात ,समुद्र की पत्नी गंगा और यमुना नदियों की जलधारा के इस संगम में जो स्नान करते हैं ,स्नान करने से पवित्र उन आत्माओं को बिना तत्वज्ञान के ही मोक्ष मिल जाता है |मृत्यु के बाद फिर से जन्म नहीं लेना पड़ता |योग और ज्ञान से जो मोक्ष मिलती है ,वह मोक्ष इस संगम में स्नान से ही संभव है |
सातवीं सदी के पूर्व के काव्यों में ,प्रयाग में गंगा -यमुना के संगम की लोकोत्तर पवित्रता का ही गायन किया गया है ,जब की सरस्वती नदी जो शिवालिक के पास हिमालय से निकलकर कुरुदेश में बहती हुयी सिन्धु में मिलती थी ,उसका उल्लेख कालिदास और वाणभट्ट के ग्रंथों में मिलता है |यहाँ सिन्धु का तात्पर्य समुद्र से है |आज जहाँ राजस्थान का रेगिस्तान है वहां कभी समुद्र था |हिमालय से निकलकर सरस्वती यही सिन्धु -समुद्र से मिल जाती थी पर्यावरणीय परिवर्तन से सरस्वती नदी विलुप्त हो गई ,विद्वानों का मत है की स्मृति स्वरूप कुरुक्षेत्र का सरोवर है |भारतीय मनीषा के लिए सरस्वती ज्ञान का पर्याय है जिसके किनारे हुयी विश्व के आदि साहित्य वेदों की ऋचायों की रचना हुई |
तीर्थराज प्रयाग के त्रिवेणी में तीन नदियों –गंगा ,यमुना,- सरस्वती के ऐकान्वय –संगम की धार्मिक मान्यता कैसे दृढ हुयी ?--इसका सम्बंध् योगदर्शन या हठयोग से है |मध्यकाल में जब नाथपंथियों के हठयोग की साधना और उससे अनहद नाद के श्रवण द्वारा योगी को अमरत्व की प्राप्ति का विश्वास और प्रचार उत्तर भारत में बहुत तीव्र होता जा रहा था ,तभी प्रयाग संगम में गंगा -यमुना के साथ पाताल से सरस्वती के संगम की अवधारण बलवती हुयी |गंगा यमुना के संगम की महनीयता से प्रभावित होकर योगियों ने गंगा को इडा तथा यमुना को पिंगला कहा अमृत सिद्धि तब होती है जब कुण्डलिनी नाभि –पाताल लोक से जागकर ब्रह्मरंध्र में पहुंचकर सहस्रदल कमल को खिला देती है |ब्रह्मरंध्र में इडा -गंगा ,यमुना -पिंगला ,तथा सुशुम्ना-सरस्वती का संगम होता है ,तो अमृत की वर्षा होती है जिसका पानकर श्रद्धालु कालजयी हो जाता है | तीर्थराज प्रयाग का अक्षय क्षेत्र ही ब्रह्मरंध्र है | सरस्वती की अवधारणा ने संगम के वर्चस्व और हठयोग के बीच संभावित टकराव को समन्वित कर सनातन परंपरा को नई दिशा दी |
कुम्भ के अवसर पर देश के विभिन्न भागों से उपस्थित होने वाले विभिन्न मतावलम्बी .ऋषि -मुनि ,मनीषी ,विचारक जो सारस्वत चर्चा करते हैं ,वही सरस्वती की धारा है |धर्म, दर्शन और संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर विद्वान् अपनी विचार धारा से जन सामान्य को नहला कर उनके मन मस्तिष्क को विमल करते हैं | युगों से तीर्थराज प्रयाग का त्रिवेणी तट अनेक मत मतान्तरों में समन्वय स्थापित कर समाज को नई दिशा देता रहा है |
- डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी