केंद्रीय उद्योग एवं वाणिज्य मंत्रालय ने कुछ महीने पहले एक वक्तव्य जारी करके कहा था कि अखबारी कागज समेत किसी भी प्रकार के कागज के आयात के पहले पूर्व पंजीयन कराना जरूरी होगा. नई व्यवस्था के मुताबिक 1 अक्टूबर से कागज का आयात निगरानी प्रणाली के अधीन होगा जिसके तहत आयातकों को खुद को पंजीकृत करना होगा. एक और उद्योग में लाइसेंस कोटा राज की वापसी को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता. देश में यह एक और ऐसा कदम है जो उदारीकरण के पहले की दिशा में बढ़ रहा है, खासतौर पर मंत्रालय ने जो विशिष्ट स्पष्टीकरण मुहैया कराया है उसकी प्रकृति संरक्षणवादी है. संबंधित वक्तव्य में कहा गया है, 'यह इस श्रेणी में मेक इन इंडिया तथा आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने की दिशा में दूरगामी कदम साबित होगा.' मेक इन इंडिया की अवधारणा भारतीय उद्योग जगत को विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने की थी लेकिन उसका लगातार दुरुपयोग जारी है.
आज का प्रिंट मीडिया पूर्ण रूप से विज्ञापन की आय पर निर्भर हो चला है. साथ ही अखबार का मूल्य लागत मूल्य से बहुत कम होने की वजह से आय कम होती है नुकसान ज्यादा. इस उद्योग को सबसे ज्यादा आर्थिक नुकसान तब होता है जब प्रसार व पाठकों की संख्या बढ़ाने के लिए इसके कवर प्राइज को घटाकर प्रसार बढ़ाने संबंधी तरह-तरह की स्कीम चलाई जाती हैं. निगरानी व नेतृत्व में अपरिपक्वता के कारण इस उद्योग को प्रतिवर्ष अरबों रूपए का नुकसान हो रहा है. आज इससे जुड़ा बड़े से बड़ा विशेषज्ञ अपनी प्रतिभा को हालात के सुपुर्द करता जा रहा है.
दुनिया के कई हिस्सों में प्रिंट मीडिया खत्म होने की कगार पर है. इसके बावजूद भारत में अखबार न सिर्फ अपने को बचाने में कामयाब रहे हैं बल्कि इनमें बढ़ोतरी भी हुई है लेकिन हाल ही में अखबारी कागजों यानी न्यूज़ प्रिंट की कीमतों में हुई वृद्धि से हालात बहुत अच्छे नजर नहीं आ रहे हैं. अखबारी कागजों की कीमतों में वृद्धि से देश में प्रिंट इंडस्ट्री पर करीब 5000 करोड़ रुपए से ज्यादा का वार्षिक बोझ पड़ेगा.
विचित्र बात यह है कि सरकार का यह कदम ऐसे समय पर आया है जब वैश्विक न्यूजप्रिंट कीमतों में तेज इजाफा हो रहा है. न्यूजप्रिंट की कीमत 2020 के निचले स्तर से तीन गुनी हो चुकी है. घरेलू कीमतें भी उसी अनुरूप बढ़ी हैं. यदि भारतीय कागज उद्योग इन हालात में भी अपनी क्षमता का इस्तेमाल कर पाने में नाकाम है तो विदेशी उत्पादकों को क्या दोष देना.
क्यों बने ऐसे हालात?
कच्चे माल की कीमतों में वृद्धि के साथ ही अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपए का कमजोर होना और हाल के वर्षों में, चीन में रद्दी कागज के आयात पर प्रतिबंध लगने के कारण अंतरराष्ट्रीय बाजार में अखबारी कागज के दाम आसमान छूते रहे हैं. भारत जरूरत का करीब 50% कागज रूस, कनाडा और यूरोप से आयात करता है. रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से सप्लाई बाधित हो गई है. कोविड महामारी के दौरान ऑनलाइन शॉपिंग बढ़ने से ब्राउन पेपर की डिमांड बढ़ गई है. पेपर मिल ब्राउन पेपर का उत्पादन ज्यादा कर रही हैं. अखबारी कागज का उत्पादन घट गया है. 2017 में जहां दुनिया में 2.38 करोड़ टन अखबारी कागज का उत्पादन होता था, अब यह 50% घटकर 1.36 करोड़ टन रह गया है.
महामारी में रद्दी कम इकट्ठी हुई, जो अखबारी कागज के लिए मुख्य कच्चा माल है. हालात यह हैं कि कभी 10 से 12 रुपए किलो बिकने वाली रद्दी आज 35 से 40 रुपए प्रति किलो में बिक रही है. प्रिंट मीडिया में करीब 30-40 प्रतिशत खर्चा तो अखबारी कागज पर ही हो जाता है. ऐसे में अब इसकी कीमतों में 50 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी प्रिंट मीडिया प्रतिष्ठानों के लिए शुभ संकेत नहीं हैं.
पिछले कुछ वर्षों में न्यूज़प्रिंट की कीमतें जहां 36000 रुपए प्रति टन थीं, वह अब बढ़कर दोगुनी हो गई हैं. भारत में सालाना रूप से न्यूज़प्रिंट की मांग 2.6 मिलियन टन है. ऐसे में न्यूज़प्रिंट की कीमतों में बढ़ोतरी होने से इंडस्ट्री को वार्षिक रूप से करीब 5000 करोड़ रुपए से ज्यादा के नुकसान की आशंका है. पहले न्यूज़प्रिंट के दाम लगभग 36-37 रुपए प्रति किलो थे, लेकिन अब ये बढ़कर लगभग 55-56 रुपए प्रति किलो तक पहुंच चुके हैं. कोरोना महामारी के दौरान, समुद्री माल भाड़ा दरों में तीन से पांच गुना वृद्धि हुई और दुनिया भर में कई पेपर मिलों के बंद होने से अखबारी कागज की दरों में भारी वृद्धि हुई. 2020 के मध्य तक अखबारी कागज की कीमत लगभग 900 अमेरिकी डॉलर प्रति मीट्रिक टन (40 हजार से 42 हजार रुपये) थी लेकिन अब उपरोक्त कारणों से ये कीमतें 950 से 1000 प्रति आयात मीट्रिक टन (80,000 रुपये से 85,000 रुपये) के आसपास पहुंच गई हैं. नतीजतन, अखबारी कागज की आयात दरें दोगुनी या अधिक हो गई हैं. रूस से आपूर्ति ठप होने के कारण निकट भविष्य में इसमें और वृद्धि होने की संभावना है.
दरअसल पिछले कुछ वर्षों में, भारतीय समाचारपत्र उद्योग दो संकटों का सामना कर रहा है, एक तो है न्यूजप्रिंट की कमी और दूसरी उसकी आसमान छूती कीमतें. यह संकट अब युद्ध और अन्य कारणों से और गहरा हो गया है. रूस और यूक्रेन के बीच चले युद्ध सहित कई कारणों की वजह से न्यूजप्रिंट की उपलब्धता में भारी कमी आई है. साथ ही अखबारी कागज की कीमतें आसमान छू रही हैं और भारतीय अखबार उद्योग बुरी तरह प्रभावित हो रहा है. अखबार उद्योग को छपाई के लिए लगने वाला कागज 55 फीसदी से ज्यादा आयात करना पड़ता है. उसमें आधे से अधिक कागज रूस से आयात किया जाता है. इसके अलावा भारत अमेरिका, कनाडा, इंडोनेशिया, और दक्षिण कोरिया से अखबार का कागज आयात करता है. चीन ने कुछ साल पहले न्यूजप्रिंट का उत्पादन बंद कर दिया था. साथ ही इंडोनेशिया और दक्षिण कोरिया में भी कईं न्यूज प्रिंट मिलें बंद हो गई हैं. वहीं न्यूज़प्रिंट की कीमतों में हुई वृद्धि के अलावा देश में न्यूज़प्रिंट के वास्तविक खरीदारों को लेकर भी स्थिति स्पष्ट न होने के कारण यह मसला गहराता जा रहा है.
इंडस्ट्री पर प्रभाव
जहां तक न्यूजप्रिंट की कीमतों की बात है तो इस साल इसने लगभग सभी को प्रभावित किया है. न्यूजप्रिंट का ऑर्डर छह से नौ महीने पहले एडवांस में दिया जाता है. ऐसे में कुछ लोग तो सिर्फ न्यूजप्रिंट की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण ही घाटे में जा सकते हैं. इंडस्ट्री की यही सच्चाई है.' इनपुट कॉस्ट में 50 प्रतिशत से ज्यादा की बढ़ोतरी होने और क्षतिपूर्ति के लिए कोई निश्चित उपाय न होने के कारण इंडस्ट्री को एक साल में करीब 500 करोड़ रुपए का घाटा हो सकता है.
अखबारों की बात करें तो हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले अखबारों में से एक 'दैनिक जागरण' सालाना करीब 1,80,000 टन न्यूज़प्रिंट खरीदता है. ऐसे में न्यूज़प्रिंट की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण अखबार को करीब 350 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भुगतान करना पड़ा है. (इसमें लगभग पांच प्रतिशत रद्दी कागज वापस आया है.) दक्षिण भारत के एक बड़े अखबार से जुड़े वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, 'न्यूज़प्रिंट की कीमतों में 50-60 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो चुकी है. भारतीय रुपए के अवमूल्यन की बात करें तो यह काफी मुश्किल समय है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि विज्ञापन नहीं बढ़ रहा है.' इसके साथ ही उनका कहना है कि कीमतों में बढ़ोतरी के कारण प्रकाशकों को हर साल 80-90 करोड़ रुपए ज्यादा खर्च करना पड़ेगा.
प्रिंट मीडिया इंडस्ट्री से जुड़े एक अन्य वरिष्ठ व्यक्ति ने बताया, 'हम लागत में कमी के बारे में सोच रहे हैं. इसके अलावा हमने अखबार की कीमत में एक रुपए की वृद्धि की है. इससे भी कुछ राहत मिलेगी, ज्यादा नहीं. अखबार की कीमत बढ़ने से इस बढ़ोतरी में केवल 35-40 प्रतिशत तक ही राहत मिल सकती है.' वहीं, इस स्थिति के बारे में 'दिल्ली प्रेस' के पब्लिशर परेश नाथ का नजरिया बिल्कुल स्पष्ट है. हालांकि परेश नाथ ने माना कि स्थिति नाजुक है लेकिन इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि यदि प्रकाशक अखबार की कीमतें सही रखें और कंटेंट को मुफ्त में देना बंद कर दें तो इससे भी इतना बड़ा संकट नहीं होगा. उनका कहना है कि न्यूज़प्रिंट की कीमतें बढ़ने के बावजूद अखबार की कीमतें बढ़ नहीं रही हैं. इनमें बढ़ोतरी होनी चाहिए और हमें रीडर को मुफ्त में कंटेंट नहीं देना चाहिए.
क्या किया जा सकता है ?
विज्ञापन पर होने वाला खर्च उतना नहीं बढ़ रहा है, जितना हम चाहते हैं. इसके अलावा कीमतों में बढ़ोतरी, खासकर न्यूजप्रिंट की बात करें तो इससे इंडस्ट्री के सभी लोगों का प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है.' प्रिंट के सीमित विज्ञापन रेवेन्यू में सिर्फ पांच से सात प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. इंडस्ट्री से जुड़े एक अन्य दिग्गज ने कहा, 'ऐडवर्टाइजिंग इंडस्ट्री के हमारे पार्टनर्स को न्यूज़पेपर इंडस्ट्री के साथ सहानुभूति रखनी चाहिए. लेकिन वे रेट के मुद्दे पर बात नहीं करते हैं. पिछले चार-पांच साल से विज्ञापन की दरों में बदलाव नहीं हुआ है. इंडस्ट्री की इनपुट कॉस्ट लगभग 60 प्रतिशत बढ़ने के बावजूद ऐडवर्टाइजर्स अभी भी कीमतें कम रखना चाहते हैं.'
अखबारों की कीमतें बढ़ाना ही एकमात्र विकल्प बचा है?
अगर अखबारों को बचाना है तो ऐसे में न्यूजप्रिंट की कमी के कारण अखबार के पन्ने कम करने पड़ेंगे. अखबारों की कीमतें भी बढ़ानी होंगी. दुनिया के सभी देशों में अखबारों की कीमतें न्यूजप्रिंट की कीमत पर निर्भर करती हैं. लेकिन, भारत में कम कीमतों पर समाचारपत्र बेचने की होड़ ने प्रतिस्पर्धा को बढ़ा दिया है. ऐसे में संकेत हैं कि अखबार के दाम बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा. अब राज्य के बड़े अखबारों से भी कीमतें बढ़ाए जाने की उम्मीद है. इसके बिना अखबार का व्यवसाय नहीं चलेगा.
भारतीय अखबारों की कीमतें बेहद कम
देखा गया है कि विदेशी अखबारों के दाम भारतीय अखबारों की कीमतों से काफी ज्यादा होते हैं. पड़ोसी देश पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है. लेकिन स्थानीय समाचारपत्र `डॉन` की कीमत 25 रुपये और जंग अखबार की कीमत 15 रुपये है. सीलोन टाइम्स की कीमत 80 रुपये है. अमेरिका के सबसे बड़े अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स के एक दैनिक अंक की कीमत 3 डॉलर यानी लगभग 225 रुपये है. उनके पन्नों की संख्या भी 80 से 100 होती है. एक अन्य प्रमुख समाचारपत्र, वाशिंगटन पोस्ट, की कीमत लगभग 2 से 3.5 डॉलर तक है. मतलब, 150 से लगभग 265 रुपये होती है. पोस्ट के डिजिटल संस्करण की मासिक सदस्यता लगभग 6 डॉलर्स यानि 450 रुपये है. मतलब एक डिजिटल इश्यू की कीमत 15 रुपये होती है, जो मराठी अखबारों की कीमत से लगभग चार गुना ज्यादा है.
भारतीय पत्र-पत्रिकाओं की साज-सज्जा देखने से लगता है जैसे हम बाजार के बीच खड़े हों और फेरीवाले चिल्ला-चिल्ला कर अपने माल की ओर हमारा ध्यान खींच रहे हों. बिक्री का सर्वमान्य फार्मूला है ‘रेप एंड रुइन मेक ए न्यूज़पेपर सेल’ यानी बलात्कार, दंगे और बरबादी की खबरों से अखबार बिकते हैं. भारतीय पत्रकार यह मान कर चलते हैं कि देश के लोग आर्थिक रूप से निर्धन होने के साथ बौद्धिक रूप से भी निर्धन हैं, अत: सारी सामग्री का चयन भी उनकी बौद्धिक निर्धनता के हिसाब से ही होता है. आज के समय में भारतीय पत्रकारिता में बिक्री बढ़ाने के लिए पत्र-पत्रिकाओं को नहीं, बल्कि प्रकाशित सामग्री को रास्ता बनाने की होड़ लगी है.