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पर्यावरण की रक्षा : यज्ञमय जीवन जीने की सलाह

श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाणपत्र कोर्स में ‘‘गीता प्रणीत पर्यावरण दृष्टि’’ विषय पर उद्बोधन।

यज्ञमय जीवन जीने की सलाह
यज्ञमय जीवन जीने की सलाह

विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान में आयोजित श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम में ‘‘गीता प्रणीत पर्यावरण दृष्टि’’ विषय रहा। डॉ. शाश्वतानंद गिरि ने विधिवत रूप से दीप प्रज्ज्वलित कर विषय का शुभारंभ किया। इस अवसर पर उनके साथ विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के निदेशक डॉ. रामेंद्र सिंह, कृष्ण कुमार भंडारी, डॉ. हुकम सिंह भी रहे। डॉक्टर शाश्वतानंद गिरि ने श्रीमद्भगवद्गीता के अनेक उद्धरण प्रस्तुत कर पर्यावरण पर बोलते हुए कहा कि हमारे चारों तरफ पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल, आकाश रूपी पंचभूत हैं यह वास्तव में पंचदेव ही हैं। इनकी आधिदैविक सत्ता भी है। हमारे यहां इनकी आधिदैविक सत्ता को स्वीकार करके इनके प्रति पूज्य भाव का निर्माण किया गया है। हमारा शरीर पंचभूतों से ही बना है। इस शरीर को पंचभूतों से निर्मित होने के बाद भी पंचभूतों की आवश्यकता रहती है। हमें उन्हें भी पुष्ट करना पड़ता है। यदि हम इन पंचभूतों से लेते ही रहेंगे तो सृष्टि का क्रम नहीं चलेगा।

उन्होंने कहा कि पर्यावरण की रक्षा के लिए यज्ञमय जीवन जीएं, पर्यावरण अपने आप शुद्ध हो जाएगा। यज्ञ कर्म से होता है। कर्म ब्रह्म से होता है। यहां ब्रह्म का अर्थ ज्ञानशक्ति है। बिना ज्ञान की प्रेरणा एवं चेतन के हम कोई कर्म नहीं कर सकते। यज्ञ माने आदान, प्रदान और उत्सर्ग। सारा जीवन ही यज्ञ है। यह जीवन यज्ञ तभी होगा जब हम अपने जीवन में हर जगह परमात्मा को प्रतिष्ठित कर लेंगे और समाज रूपी परमात्मा को देने के भाव से करेंगे। क्रिया और विक्रिया पर उन्होंने कहा कि जड़ वस्तुओं में विक्रिया होती है। अर्थात उनमें परिवर्तन होता है। चेतन की प्रेरणा से ही कोई क्रिया होती है। हम सभी क्रियाशील हैं। ज्ञान शक्ति के बिना क्रिया शक्ति कुछ नहीं कर सकती। पर्यावरण को शुद्ध करने का एक ही मूल मंत्र गीता देती है कि अपने कर्मों को यज्ञ बना लें।

उन्होंने कहा कि हमारे यहां चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहे गए हैं। कामना को धर्म की दृष्टि से पूर्ण करें, धर्म की दृष्टि से धर्मपूर्वक अर्थ की कमाई करें और धर्म के अनुशासन में ही अपनी कामनाओं की पूर्ति करें। ऐसा करने पर अंतःकरण शुद्ध रहेगा, समय आने पर बोध होगा और अंतःकरण निर्मल होकर मुक्त हो जाएंगे अर्थात मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। डॉ. शाश्वतानंद ने कहा कि सृष्टि के सभी प्राणियों के संपूर्ण कर्मों का जो प्रभाव पुंज बनता है और उसका जो स्वयं प्रभाव निर्मित होता है वह है नियति। पूरे जीवन के कर्मों से भाग्य का निर्माण होता है। लेकिन एक जन्म के अंतिम चरण के शरीर छोड़ने के क्षण का जो कर्म है वह प्रारब्ध कर्म है। यही प्रारब्ध कर्म अगले जन्म का कारण बनता है। वर्तमान जन्म के क्षण की दृष्टि से जो ब्रह्मांडीय ग्रहों की व्यवस्था है, उसका भविष्य में जो आपके ऊपर असर पड़ने वाला है वह प्रारब्ध है। विषय में आगे कहा गया कि बिना कारण और कार्य का जो शुद्ध पूर्ण तत्व है वह अक्षर तत्व है। वह एक रस है परिपूर्ण है और ब्रह्म है। उसमें किसी प्रकार का कोई वैशिष्ट्य नहीं है। उसी में स्पंदन होता है और उस स्पंदन में जो गुण आया, वही माया है। उसी से कारण बन जाता है और फिर कार्य की सृष्टि हो जाती है।

फोटो - विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान में श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाण पत्र कोर्स में दीप प्रज्ज्वलन करते डॉ. शाश्वतानंद गिरि। साथ हैं डॉ. रामेन्द्र सिंह और कृष्ण कुमार भंडारी। ‘‘गीता प्रणीत पर्यावरण दृष्टि’’ विषय पर प्रतिभागियों को संबोधित करते डॉ. शाश्वतानंद गिरि।


Published: 29-01-2023

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