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माली से ‘महात्मा’ बने : ज्योतिबा फुले को लिखनी पड़ी गुलामी

स्मृति दिवस (28 नवम्बर) - आज जब फासीवादी ताकतें जातिप्रथा व पितृसत्ता के आधार पर व साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से दलितों, स्त्रियों व अल्पसंख्यकों पर हमले तीव्र कर रहे हैं, खाने-पीने-जीवनसाथी चुनने व प्रेम के अधिकार को भी छीनने की कोशिश कर रहे हैं, तब फुले को याद करने का विशेष औचित्य है.

ज्योतिबा फुले को लिखनी पड़ी गुलामी
ज्योतिबा फुले को लिखनी पड़ी गुलामी

ज्योतिराव गोविंदराव फुले एक महान समाजसुधारक, समाज प्रबोधक, विचारक, समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे. इनका जन्म 11 अप्रैल 1827 में महाराष्ट्र के पुणे में माली जाति में हुआ और उनका परिवार फूल बेचने का काम करता था इसलिए उनका नाम फूले पड़ा. इन्हें महात्मा फुले एवं ''जोतिबा फुले के नाम से भी जाना जाता है. फुले समाज की कुप्रथा, अंधश्रद्धा की जाल से समाज को मुक्त करना चाहते थे. महात्मा फुले के निधन को 133 साल हो चुके हैं लेकिन उनके विचारों में अभी भी ताज़गी बनी हुई है. महात्मा फुले एक मानवतावादी विचारक थे लेकिन साथ ही वे एक दूरदर्शी कृषि विशेषज्ञ भी थे.

महात्मा फुले ने अपना जीवन महिलाओं, वंचितों और शोषित किसानों के उत्थान के लिए समर्पित किया था. कुछ लोगों ने उन पर गोबर भी फेंका लेकिन फुले ने अपना काम नहीं छोड़ा. इन विरोधों का कोई असर न होते देख कुछ लोगों ने फुले को मारने के लिए दो हत्यारों को भेजा. लेकिन महात्मा फुले की शिक्षा का असर ऐसा हुआ कि उनकी हत्या करने आए दोनों व्यक्तियों ने भी सामाजिक कार्यों में महात्मा फुले का साथ दिया. उनमें से एक महात्मा फुले के अंगरक्षक बने जबकि दूसरे सत्यशोधक समाज के अनुयायी बने और किताबें भी लिखीं.

आज ज्योतिबा फुले का स्मृति दिवस है. ज्योतिबा फुले का पूरा जीवन जाति उन्मूलन और स्त्रियों की शिक्षा व मुक्ति के लिये समर्पित रहा. ज्योतिबा फुले को अपने संकल्प में पूरा विश्वास था. उस कठिन दौर में जबकि जातीय भेदभाव बहुत ज़्यादा था और स्त्रियों के लिये तो शिक्षा के दरवाज़े लगभग पूरी तरह से बन्द थे तब ज्योतिबा फुले ने इस संघर्ष में अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को साथ लिया. उन्होने सावित्री बाई को पढ़ना लिखना सिखाया. बाद में उनकी प्रेरणा से स्त्री शिक्षा के कार्य को हर उत्पीड़न सहकर भी सावित्रीबाई फुले ने नहीं छोड़ा. इसी तरह ज्योतिबा फुले विधवाओं के पुनर्विवाह के लिये न केवल ब्राह्मणवाद के खिलाफ़ खड़े हुये बल्कि विधवाओं के बाल कटने से रोकने के लिए नाइयों की हड़ताल आयोजित की.

ज्योतिबा फुले द्वारा बाल विवाह का निषेध, विधवाओं के बच्चों का पालन-पोषण जैसे अनेक क़दमों से भी ज्योतिराव-सावित्रीबाई का स्त्री समानता, स्त्री स्वतन्त्रता का दृष्टिकोण उद्घाटित होता है. स्त्री मुक्ति व जाति उन्मूलन के संघर्ष में फुले का योगदान बेहद महत्वपूर्ण है. आज हम सब जानते हैं कि स्त्री मुक्ति व जाति उन्मूलन आपस में गुंथे हुए हैं. जाति उन्मूलन के लिए अन्तरजातीय विवाह होने ज़रूरी हैं और वो तभी हो सकते हैं जब स्त्री मुक्त होगी. साथ ही स्त्री भी सच्चे मायनों में तभी स्वतन्त्र हो सकेगी जब जाति ख़त्म होगी. जातियों के समूल उन्मूलन का प्रोजेक्ट इस व्यवस्था को उखाड़कर एक समाजवादी व्यवस्था के निर्माण से ही मुकाम की तरफ ले जाया जा सकता है.

ज्योतिबा को उम्मीद थी कि धार्मिक गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर पूरा समाज जाति से मुक्त हो जाएगा. उन्होंने कहा कि भगवान और भक्त के बीच कोई मध्यस्थ नहीं है, ऐसा कहकर उन्होंने पुरोहितों के महत्व को नकार दिया. उन्होंने यह विश्लेषण करते हुए एक किताब लिखी कि क्यों रूढ़िवादियों की समाज में इतनी मज़बूत पैठ है. इस किताब का नाम 'गुलामी' है. यह पुस्तक अमेरिका में गुलामी से मुक्ति हासिल करने वाले काले लोगों को समर्पित है.

गौर करने वाली बात है कि सामाजिक परिर्वतन के लिए ज्योतिराव फुले ने कभी किसी की ओर हांथ नहीं फैलाया. उपलब्ध साधनों से ही उन्होंने अपने संघर्ष की शुरुआत की. सामाजिक सवालों पर भी फुले शेटजी व भटजी दोनों को दुश्मन के रूप में चिह्निलत करते थे. वो उन दलित मुक्ति के चिन्तकों से बहुत आगे आ गये थे जिन्हें अंग्रेज़ 'मुक्तिदाता' के रूप में नज़र आते थे. मजदूरों की दशा ज्योतिबा फुले से छिपी नहीं थी. विशेषज्ञों का मानना है कि अगर हम उनके विचारों के आधार पर क़दम उठाएं तो देश की कृषि समस्याओं का समाधान किया जा सकता है.


Published: 28-11-2022

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