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पिघलने लगी : भारत अफगानिस्तान रिश्तों पर जमी बर्फ

कहावत है कि सौ मित्रों की भीड़ से अच्छा वो एक मित्र है जो आपके लिए सौ लोगों की भीड़ को ललकार सके. अफगानिस्तान-भारत की इसी श्रेणी की दोस्ती है, पर भारत को सतर्क रह कर द्विपक्षीय संबंधों की नयी इबारत लिखनी होगी.

भारत अफगानिस्तान रिश्तों पर जमी बर्फ
भारत अफगानिस्तान रिश्तों पर जमी बर्फ


भारत और अफगानिस्तान के हजारों साल पुराने रिश्ते रहे हैं जो पीछे महाभारत काल तक चले जाते हैं कुरू नरेश धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी अफगानिस्तान के कंधार प्रदेश की बेटी थीं. समय तो ऐसा भी आया जब यह इलाका भारत का ही एक हिस्सा रहा. समय एक सा नहीं रहता और इसी समय की चाल ने ऐसी करवट ली कि दोनों अच्छे पड़ोसियों के बीच पिछले साल अगस्त में हुई तख्ता पलट और तालिबान की हुकूमत पर ताजपोशी के बाद से संदेह की दीवार खड़ी हो गयी थी. तालिबान के बन्दूक और अत्याचार के दम पर सत्ता हासिल करने के कृत्य को पूरी दुनिया ने पसंद नहीं किया था. बाकी देशों की तरह भारत ने भी अफगानिस्तान से कूटनीतिक संबंध तोड़ लिये थे.

पर अब रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलने लगी है. दुनिया भर से कूटनयिक सम्बन्ध ख़तम होने के बाद से तालिबान शासन में वहां की जनता गरीबी , भुखमरी, बीमारी के चंगुल में बुरी तरह फंस गयी थी. सो भारत ने मानवीय आधार पर पिछले महीने में 20,000 मिट्रिक टन गेहूं, 13 टन दवायें, कोविड वैक्सीन के 5 लाख डोज और सर्दियों के कपड़े की एक बड़ी खेप अफगानिस्तान भेजी है ताकि वहां के लोगों की जरूरतें पूरी की जा सकें. ये सारा सामान काबुल में इंडिया गांधी चिल्ड्रेन हॉस्पीटल और विश्व स्वास्थ्य संगठन और विश्व भोजन कार्यक्रम जैसी संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों के हवाले किया गया है. बयान में यह भी कहा गया है कि और ज्यादा मेडिकल सहायता और अनाज भेजा जा चुका है. क़तर की राजधानी दोहा से शुरू हुई भारत -अफगानिस्तान सम्बन्ध बहाली की कोशिश एक कदम और आगे बढाकर काबुल में भारतीय दूतावास को फिर से खोलने तक आ पहुंची है.

भारतीय दूतावास फिर से खुल जाने के बाद भारत एशिया के अपने पुराने मित्र देश के साथ रिश्तों को नयी धार देने के अभियान में जुटेगा. भारत की टेक्निकल टीम जून के महीने से ही वहां तैनात कर दी गयी है जो वाणिज्य और व्यापार की संभावनाओं को तलाहने और अनाज और दवाई की आवश्यकता का ब्यौरा इकठ्ठा कर के काम में लग गयी है. अफगानिस्तान की काम एयरलाइन्स की काबुल से दिल्ली की सप्ताह में एक बार उड़ान की देखा देखी एरियाना एयरलाइन्स भी अपनी उड़ान भरने को तैयार है. सहायता सामग्री ज्यादा से ज्यादा और कम समय में लाने ले जाने के लिए एयर कार्गो मददगार साबित हो सकता है. हालांकि दूतावास ने वीजा सेवाएँ अभी शुरू करने का निर्णय लिया है. अफगान नागरिकों को अभी सीमित संख्या में ई वीजा रूट से वीजा जारी किये गए हैं. पढाई और इलाज के लिए सैकड़ों छात्र और मरीज़ भारत आने के लिए कतार में हैं.

दूतावास छोड़ कर जाने के दस महीने बाद जब भारतीय अधिकारी २३ जून को दुबारा वहां घुसे तो उन्हें इस बात का सुखद आश्चर्य हुआ कि हथियार, बुलेट प्रूफ जैकेट, ख़ुफ़िया उपकरण सारा सामान छुआ नहीं गया था. वो सब कुछ वैसे का वैसा ही था जैसा छोड़ कर गए थे. पर तालिबान सेना ने सारे सामान की जांच जरूर की थी. पर दूतावास के स्थानीय अफगान कर्मचारियों दूतावास परिसर को कहीं से भी नुक्सान नहीं पहुँचने दिया. भारतीय अधिकारीयों का कहना है कि उन्हें दूतावास में वीजा के आवेदन के लिए सैकड़ों पासपोर्ट मिले जिनमे अधिकांश भारत में पढ़ रहे छात्रों और कीमोथेरेपी के लिए आने वाले मरीजों के हैं. पर वीजा का क्लेअरेंस विदेश मंत्रालय, गृह मंत्रालय और रॉ दिल्ली में बैठ कर कर रहा है. इसलिए थोडा देर लग रही है.

प्रधानमंत्री मोदी ने अपने कार्यकाल में शुरू से ही अफगानिस्तान से मैत्री बढ़ाने के नज़रिए से विकास से जुड़े कई प्रोजेक्ट शुरू किये थे. वजह ये है कि अफगानिस्तान भारत का ऐसा मित्र रहा है जो सामरिक दृष्टि से तो इस क्षेत्र में भारत के लिए बहुत अहम है ही एशियाई देशों के क्लब सार्क का शायद अकेला ऐसा देश है जहाँ की अधिकांश जनता भारत से बहुत प्यार करती है. २०११ में हुए भारत-अफगानिस्तान सामरिक साझा समझौते के तहत ही भारत ने अफगानिस्तान के विकास के लिए ३ अरब डॉलर का निवेश किया है. भारत ने वहां प्रमुख सड़कों, बांधों का निर्माण किया है. बिजली पारेषण की लाइनें बिछाई हैं, सब स्टेशन बनाएं हैं. स्कूल और अस्पताल खोले. खास बात ये रही कि इन विकास प्रोजेक्ट्स की तार्किक परिणति भी सामने आयी. जबकि कुछ ऐसे देश हैं जहाँ भारत की निवेश परियोजनाएं लोकल पॉलिटिक्स के चलते अधर में ही लटकी पड़ी हैं. यही कारण है कि तालिबान के आगमन से पहले भारत और अफगानिस्तान के बीच दुतरफा १ अरब डॉलर का व्यापार हो रहा था.

भारत ने अफगानिस्तान के साथ आत्मीय और कारोबारी रिश्ते पटरी पर लाने के लिए ईमानदार कोशिश तो की है मगर विशवास की बहाली के लिए सतर्कता के साथ कदम आगे बढाने होंगे. अमेरिका की एकतरफा कार्रवाई में काबुल अल कायदा चीफ अयमान अल जवाहिरी की मौत ने तालिबान शासन के इरादों पर संदेह पैदा कर दिया है. एक तरफ तो तालिबान दुनिया से संपर्क साधने के लिए अपनी बेदाग छवि बनाने के जतन कर रहा है तो दूसरी ओर काबुल में आतंक का सबसे बड़ा चेहरा जवाहिरी काबुल में ठाठ के साथ गुलछर्रे उड़ा रहा था. ऐसा माने के लिए कोई आसानी से तैयार नहीं होगा कि काबुल में जवाहिरी की मौजूदगी से तालिबान बेखबर हो. अगर खबर थी तो साफ़ है कि तालिबान आतंक के पक्षधर समूहों के साथ अभी भी गलबहियां कर रहा था. हो सकता है कि सभी तालिबानियों को जवाहिरी की मौजूदगी का पता न हो पर तालिबान धड़े के हक्कानी नेटवर्क के लीडरों को इस बात का पता जरूर था. हक्कानी नेटवर्क के अल कायदा से बेहद नज़दीक रिश्तों का इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जवाहिरी इस जमात के नेता सिराजुद्दीन हक्कानी के बंगले में ही रह रहा था.

एशिया पर बारीक निगाह रखने वाले विशेषग्य संस्थानों का मानना है कि काबुल में जवाहिरी की खोज अफगानिस्तान में तालिबान से रिश्तों की बहाली में भारत के प्रयासों पर पानी फेर सकता है. तालिबान अल कायदा और अन्य आतंकी गुटों के काफी करीब है और उनमे से लगभग सारे भारत पर सैद्धांतिक रूप से आक्रामक हैं. पर ऐसा नहीं लगता कि एक जवाहिरी एपिसोड से भारत आगे बढे अपने कदम वापिस खींच लेगा. पाकिस्तान के उत्पाती किरदार और चीन की कुचालों के बीच भारत को हर हाल में तालिबान शासित उस अफगानिस्तान की धरती पर अपने कदम मजबूती के साथ रखने होंगे जहाँ की जनता भारत से बहुत प्यार करती है. मध्य एशिया के बाज़ारों और प्राकृतिक संसाधनों तक पहुँच बनानी ही होगी. तालिबानियों के आतंकी गुटों के साथ सम्बन्ध हो सकते हैं किन्तु दुनिया से मदद पाने के लिए तालिबान शासन को अपनी छवि में सुधार लाकर दिखाना होगा. युद्ध की मारी जनता को सबके सहयोग से उबारने की जिम्मेदारी उस पर है. रोटी, कपडा, मकान की मूल जरूरतों को पूरा करने का बोझ तालिबान पर है. जनता की नाराज़गी का जोखिम तालिबान भी नहीं उठाना चाहेंगे.

जवाहिरी को पनाह देकर अमेरिका से एक पंगा उन्होंने ले ही लिया है. अफगानिस्तान से सेना हटा लेने के बाद भी अमेरिका ने जिस तरह घर में घुस कर जवाहिरी को मौत के घाट उतारा है वो एक तरह से तालिबानियों की बेइज्जती ही कही जाएगी. इसलिए कि तालिबान ने सत्ता सँभालते ही कसम खाई थी कि अब किसी विदेशी फ़ौज को अपने यहाँ कदम रखने नहीं देंगे. फिर भी अमेरिका ने एकतरफा कार्रवाई करके ओसामा बिन लादेन के बाद दुश्मन नंबर वन जवाहिरी को निपटा दिया. इस घटना का खामियाजा अफगानी जनता को भुगतना पड़ सकता है. इस से अमेरिकी बैंकों में जमा अफगानिस्तान सेंट्रल बैंक के एसेट्स रिलीज़ करने में दिक्कत पेश आ सकती है जो तबाह अफगानिस्तान की आर्थिक सेहत के लिए बहुत जरूरी है. अमेरिका हो सकता है यह कह कर अफगानिस्तान को आर्थिक मदद बढ़ाने में ना नुकर करे कि उसका पैसा गलत हाथों में चला जायेगा.

इन हालत में भले चीन की नज़र अफगानिस्तान की जमीन के नीचे दबी खनिज सम्पदा पर हो, अमेरिका और रूस के अपने स्वार्थ हों पर भारत और अफगानिस्तान के बीच साजिश, अविश्वास, टकराव के कम ही अवसर सामने आये हैं. नाज़ुक अवसरों पर अफगानिस्तान एक अच्छा पडोसी और मित्र ही साबित हुआ है. कहावत है कि सौ मित्रों की भीड़ से अच्छा वो एक मित्र है जो आपके लिए सौ लोगों की भीड़ को ललकार सके. अफगानिस्तान-भारत की इसी श्रेणी की दोस्ती है, पर भारत को सतर्क रह कर द्विपक्षीय संबंधों की नयी इबारत लिखनी होगी.

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार है )


Published: 14-08-2022

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