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अंध भक्ति बनाम अंध विरोध : दो खेमों में बंटी देश की राजनीति

सोशल मीडिया ने अंध भक्ति और अंध विरोध के दो तंजिया शब्द गढ़ कर देश के राजनीतिक मानचित्र को साफ साफ दो खेमों में बांट दिया है. लोकतंत्र की इस महाभारत में अंध भक्ति का अर्थ है मोदी, भाजपा और आरएसएस का समर्थन और अंध विरोध की राह पर चलने का मतलब है उनका विरोध.

दो खेमों में बंटी देश की राजनीति
दो खेमों में बंटी देश की राजनीति

देश के राजनीतिक संवैधानिक मुखिया के पद पर द्रौपदी मुर्मू की शानदार विजय को दो साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव से जोड़ कर देखा जा रहा है. 2024 में परिणाम क्या होगा ? 2014 से सत्ता पथ पर निकल पड़ा भाजपा का विजय रथ रुक जायेगा या और पांच साल राज के लिये जनता का आर्शीवाद पा जायेगा ? यह अभी से सही सही आंक पाना मुश्किल है क्योंकि कांग्रेस और उसके साथी दल कसरत में पसीना तो खूब बहा रहे हैं. यह भी सच है कि सोशल मीडिया ने अंध भक्ति और अंध विरोध के दो तंजिया शब्द गढ़ कर देश के राजनीतिक मानचित्र को साफ साफ दो खेमों में बांट दिया है.

लोकतंत्र की इस महाभारत में अंध भक्ति का अर्थ है मोदी, भाजपा और आरएसएस का समर्थन और अंध विरोध की राह पर चलने का मतलब है उनका विरोध. इस समर में एक ओर है भाजपा और उसके सहयोगी तो मुकाबले में है गैर भाजपावाद के नारे के साथ कांग्रेस और उसके सहयोगी. भाजपा के प्रसारवाद पर रोक लगाने के अभियान पर एक नजर डाली जाये तो आंकड़ों की गणित के हिसाब से विपक्ष के पास उम्मीद का सहारा जरूर है. वो ऐसे कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सत्ता का वरण करने वाली भाजपा को देश के 37.36 परसेंट मतदाताओं का वोट ही हासिल हो पाया था. यानी साफ है कि अगर बिखरा विपक्ष एक हो जाये तो आसानी से भाजपा के अश्वमेध यज्ञ को खंडित कर सकता है. पर राष्ट्रपति पद के चुनाव को अगर संकेत माना जाये तो ऐसी विपक्षी एकता साध पाना दूर की कौड़ी है.

राष्ट्रपति चुनाव में जिस तरह से भाजपा के विरोध पर टिके विपक्षी क्षेत्रीय दलों के बाड़े को लांघ कर नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में मतदान हुआ उससे स्पष्ट है कि खाली मोदी विरोध के जुनून से उन्हें सत्ता से हटा पाना संभव नहीं है. देश की 50 राजनीतिक पार्टियों ने जहां मुर्मू को वोट दिया वहां विपक्ष के प्रत्याशी यशवंत सिन्हा को केवल 36 पार्टियों का समर्थन ही हासिल हो सका. मुर्मू के समर्थन में भाजपा विरोध के दम पर राज्यों में राज करने वाली प्रमुख पार्टियों में ओडिसा की बीजू जनता दल, आंध्रप्रदेश की वाई एस आर सी पी, मायावती की बसपा, झारखंड की जेएमएम और यहां तक कि महाराष्ट्र की शिवसेना भी शामिल थी.

राष्ट्रपति के पद पर पहली आदिवासी महिला प्रत्याशी को उतारने का भाजपा का दांव ही ऐसा था कि इन पार्टियों के लिये अपने अपने राज्यों में प्रभावी आदिवासी मतदाता वर्ग की अवहेलना कर पाना टेढ़ी खीर हो गया था. गैर भाजपावाद और गैर हिंदुवाद की बुनियाद पर खड़े इन दलों के राजनीतिक किलों के लिए आदिवासी समुदाय को नाराज करना भारी पड़ सकता था. यह समुदाय देश की कुल आबादी का करीब नौ परसेंट है और राजस्थान, उत्तरप्रदेश, झारखंड, बंगाल, ओडिसा, असम, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना से लेकर महाराष्ट्र तक में उसकी उपस्थिति है. इतना कुछ होते हुए भी यह विडंबना ही है कि लम्बे अरसे से शेड्यूल्ड ट्राइब के संवैधानिक खांचे में कैद यह आदिवासी समुदाय प्रशासनिक दृष्टि से शेड्यूल्ड कास्ट के साथ जोड़ कर देखा जाता रहा है और वनों में रहने के कारण आसानी से धर्म परिवर्तन और वाममार्गियों के रक्तरंजित छलावे का शिकार होता रहा है. यह सही है कि आजादी के बाद से विभिन्न राजनीतिक दलों के संगठनों में एससी एसटी सेल बनाये जाते रहे हैं पर भाजपा के लिये शुरू से ही आदिवासी उसके एजेंडे में प्रमुखता से शामिल रहे हैं.

सबसे पहले सत्ता का अवसर मिलते ही वाजपेयी सरकार ने 2003 में 89 वें संविधान संशोधन के माध्यम से एक अलग नेशनल कमिशन फॉर शेड्यूल्ड ट्राइब्स का गठन किया था. 2014 के बाद से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने और भी ज्यादा फोकस के साथ इस दिशा में काम किया है. प्रधानमंत्री वन धन योजना के जरिये ज्यादा व्यवस्थित तरीके से मोदी सरकार ने वनवासी आदिवासियों के विकास की दिशा में काम किया है और इसके सुपरिणाम भी सामने आये हैं. उनके पारंपरिक उत्पादों को बेहतर आर्थिक सहयोग और बाजार मिला है. एकलव्य मॉडल रेजिडेन्शियल स्कूलों के जरिये आदिवासी क्षेत्रों में शैक्षिक ढांचे को सुदृढ़ करने के अच्छे नतीजे हाल के वर्षों में सामने आये हैं. उनके इतिहास, नायकों, संस्कृतियों को भारत का हिस्सा मानते हुए आदिवासी गौरव को नयी पहचान दी गयी है. 2021 से आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मान देने के इरादे से जनजातीय गौरव दिवस की शुरुआत को भी एक उल्लेखनीय प्रयास कहा जा सकता है. प्रधानमंत्री ने हाल ही में आंध्र में अंग्रेजों के विरुद्ध रम्पा विद्रोह के आदिवासी नायक अल्लूरी सीताराम राजू की प्रतिमा का अनावरण किया था. पर लोकतंत्र में गौरव की अनुभूति राजनीतिक प्रतिनिधित्व के बिना पूर्ण नहीं मानी जा सकती. इसीलिये मोदी ने संथाल जनजाति की द्रौपदी मुर्मू को देश के सर्वोच्च आसन पर बिठा कर पूरे आदिवासी समुदाय को जो सन्देश दिया है वो आने वाले समय में भाजपा के राजनीतिक सफर को और आसान बना सकता है.

वैसे आदिवासियों को अपना बनाने की मुहिम में भाजपा की मूल अभिभावक संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता है. दरअसल पहले जनसंघ और अब भाजपा के लिये वनों में बसी आबादी के बीच जमीन को उपजाऊ बनाने का काम तो उसने ही किया है. 1960 से ही संघ के अनुषांगिक संगठन वनवासी आश्रम के माध्यम से आदिवासी छात्रों को भारतीय सभ्यता पर आधारित शिक्षा दी जा रही है और आज एक बड़ा नेटवर्क वहां स्थापित हो चुका है. आदिवासी खेलों और उनके देसी ज्ञान को बढ़ावा देकर आदिवासियों के एक वर्ग के मन में वनवासी कल्याण आश्रम के प्रति प्रेम की बुनियाद तो पहले से पड़ चुकी थी. अब मोदी ने मुर्मू को राष्ट्रपति बना कर उसे और पुख्ता करने का ही काम किया है. अब तो स्थिति ये है कि गांधीवादी और सर्वोदयी संस्थाएं भी संघ के साथ समन्वय स्थापित करके वहां काम कर रही हैं. पर बन्दूक की नली के सहारे आदिवासी उत्थान के काम में लगे नक्सली संगठन संबद्ध राज्य सरकारों से टकराव के कारण अब अपना प्रभाव खो रहे हैं.

आजादी के बाद से बिना किसी आस के कांग्रेस के मोहपाश में बंधे रहे देश के 15 राज्यों में फैले आदिवासी ऐसे में अब भाजपा से प्रेम करने लगें तो इसे क्या आप अंध भक्ति कहेंगे ? वरना क्या कारण है कि गुजरात, हिमाचलप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, दिल्ली, कर्नाटक, मणिपुर और त्रिपुरा में कभी भाजपा से सीधे मुकाबिल कांग्रेस आज धीरे धीर सिकुड़ती चली जा रही है. इन दस में दो राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़ को छोड कर बाकी में तो कांग्रेस को भाजपा से पराजय का सामना करना ही पड़ रहा है. पहले दिल्ली और अब पंजाब में आम आदमी पार्टी ने उसकी जमीन हथिया ली है. या यूं कहें कि अब भाजपा से लड़ने के साथ ही कांग्रेस को एक और प्रतिद्वंद्वी आप का सामना करना पड़ रहा है.

आंध्र, तेलंगाना, ओडिसा और बंगाल ऐसे राज्य हैं जहां भाजपा ने कांग्रेस से विपक्ष की भूमिका छीन ली है और तीनों राज्यों में 2014 से 2019 के बीच अपना वोट शेयर बढ़ा लिया है. आज स्थिति ये है कि वाईएसआरसीपी, टीआरएस, बीजद और तृणमूल कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर तो भाजपा को कमजोर करने के लिये कांग्रेस या अन्य दलों से तालमेल करने को राजी हैं. पर बात जब अपनी जमीन बचाने की आती है तो उनसे अलहदा हो जाते हैं. तमिलनाडु और केरल दो राज्य ऐसे बचे हैं जहां क्षेत्रीय दलों का मुकाबला क्षेत्रीय दलों से ही है. पर वहां भी भाजपा ने बीते सालों में क्षेत्रीय दलों में आपसी फूट का लाभ उठा कर अपनी जमीन तैयार करना शुरू कर दिया है. रहा सबसे बड़ा प्रदेश उत्तर प्रदेश जिसमे कांग्रेस की जान बसती थी उसे भी पहले सपा और बसपा ने छीना और अब आपस में लड़ कर भाजपा को थाली में सजा कर पेश कर दिया है.

इस तरह भाजपा जहां पूरे भारत में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिये एक तयशुदा एजेंडे पर अग्रसर है वहां विपक्ष है कि मोदी और भाजपा-आरएसएस के अंध विरोध में अपना पैर ही कुल्हाड़ी पर मारे दे रहा है. चाहे वो सवाल सीएए, एनआरसी का हो या तीन तलाक, राम मंदिर, कश्मीर का या किसान कल्याण का या फिर अग्निवीर योजना का उसे लगता है कि मोदी सरकार के इन फैसलों पर संसद के अंदर सार्थक चर्चा और सुधार के सुझाव के बजाय सड़क पर अराजकता फैला कर वो सत्ता के दरवाजे को खोलने में कामयाब हो जायेगा. जनता और अब जनप्रतिनिधियों ने बीते आठ सालों में विपक्ष को बार बार अपने मत से विपक्ष को इस बारे में आगाह करने का प्रयास किया भी है. पर उसे समझ में आये तो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार है)


Published: 29-07-2022

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