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कांग्रेस में जोश और अनुभव का टकराव

रजनीकांत वशिष्ठ : नयी दिल्ली : राजस्थान सरकार में तूफान उठाने वाले सचिन पायलट का विद्रोह साल भर से कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व में कभी पुरवा तो कभी पछुआ हवा के बहाव का नतीजा है. ये दरअसल कांग्रेस में बूढ़े सिपहसालारों और युवा सेनापतियों के बीच चल रह

कांग्रेस में जोश और अनुभव का टकराव
कांग्रेस में जोश और अनुभव का टकराव
रजनीकांत वशिष्ठ : नयी दिल्ली : राजस्थान सरकार में तूफान उठाने वाले सचिन पायलट का विद्रोह साल भर से कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व में कभी पुरवा तो कभी पछुआ हवा के बहाव का नतीजा है. ये दरअसल कांग्रेस में बूढ़े सिपहसालारों और युवा सेनापतियों के बीच चल रही रस्साकशी है जिसने एक सौ पैंतीस साल पुरानी पार्टी को आज इस मुकाम पर ला खड़ा किया है कि पहले आंध्र प्रदेश, गोवा, हरियाणा और अब मध्यप्रदेश के जीते हुए किले उसके हाथ से निकल गये और राजस्थान की हालत डांवाडोल है. राजस्थान में 2018 में मुख्यमंत्री अशोक गहलौत और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच हुए असहज समझौते की हंडिया बीच चौराहे पर है और फूटने को बेक़रार है. हंडिया फूटे या न फूटे लेकिन कांग्रेस में सोनिया गांधी के पौरुख थकने के कारण कई राज्य पीढ़ीगत परिवर्तन की लम्बे समय से प्रतीक्षा कर रहे थे. पर ऐसा लगता है कि कभी सर्वशक्तिमान का दर्जा प्राप्त हाईकमान की वो चमक, हनक और धमक आज की तारीख में फीकी पड़ चुकी है, जिसके दम पर पुतली के इशारे से फैसले हुआ करते थे. ज्योतिरादित्य सिंधिया का निकास और सचिन पायलट का लाइन हाजिर होना इस बात का सबूत है कि बुजुर्ग सूबेदारों ने अपनी जड़ें कांग्रेस के अंदर कितनी मजबूत कर लीं हैं. 2019 लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी की पराजय पर सवाल उठाये जा सकते हैं. पर उत्तराधिकारी के चयन में अनिर्णय की स्थिति ने पीढ़ीगत परिवर्तन को और आगे लटका दिया. बुजुर्ग कांग्रेसी इसी अनिर्णय का लाभ उठा कर फिर से सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनवा कर ले तो आये मगर कांग्रेस नेतृत्व की बागडोर युवा हाथों में जाने का एक सुनहरा अवसर हाथ से निकल गया. ऐसे समय जब पार्टी को युवा नेतृत्व को पनपने का एक अवसर देकर भविष्य को संवारना था, वो फिर से घबरा कर बीते हुए कल के आसरे हो ली. भले ही हाईकमान के मंच से ये लगातार कहा जाता रहा हो कि पार्टी में बुजुर्गों और युवाओं मे तालमेल बना कर चला जायेगा. पर ऐसा हो कभी नहीं पाया और भूत और भविष्य के खेमों के बीच दरार लगातार चौड़ी होती चली गयी. इसी रस्साकशी के चलते महाराष्ट्र में जहां कभी कांग्रेस नंबर वन की ताकत हुआ करती थी चुनाव में चौथे नंबर की पार्टी बन कर रह गयी. मिलिंद देवड़ा और संजय निरुपम जैसे युवा दर्शक दीर्घा में पहुंचा दिये गये. हरियाणा में भारी सत्ता विरोधी लहर का लाभ ले पाने में विफल रही और युवा नेता प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर को पार्टी से अपना बोरिया बिस्तर समेट कर बाहर निकलना पड़ा. इसके पहले बिहार में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक कुमार चौधरी को भी इसी प्रारब्ध से दो चार होना पड़ा. यही हाल असम में हेमंत विस्वाशर्मा का हुआ, नतीजा असम से कांग्रेस बेदखल हो गयी. उससे भी पहले आंध्र प्रदेश में अगर कांग्रेस ने सूझबूझ दिखायी होती तो वो जोशीला युवा जगनमोहन रेड्डी उसके खाते में होता जो आज वहां अपने अलग झंडे के साथ मुख्यमंत्री के पद पर विराजमान हैं. पूर्व केन्द्रीय मंत्री पी चिदम्बरम के बेटे कार्ती चिदम्बरम और पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हाराव के दिवंगत राजनीतिक सलाहकार और उत्तर पदेश के पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जितेन्द्र प्रसाद के पुत्र जतिन प्रसाद भी कांग्रेस के मौजूदा हालात से खुश नहीं हैं और कसमसा रहे हैं. कांग्रेस के ये सभी प्रतिभाशाली युवा नेता अपने आप को इसलिये असहाय स्थिति में पा रहे हैं क्योंकि गांधी परिवार के नेतृत्व में उनकी नैया तूफान में तो उतार दी गयी लेकिन किसी के हाथों में पतवार नहीं दी गयी. ये कमाल था सोनिया के किचन कैबिनेट के उन बुजुर्ग कांग्रेसियों का जिनका फंडा ये रहा कि अगर युवाओं को सब सौंप दिया तो कल उनके भविष्य का क्या होगा ? उन्हें कौन पूछेगा ? मध्यप्रदेश हाथ से निकल जरूर गया पर कमलनाथ ने संतुलित भाषा से ही ज्योतिरादित्य सिंधिया को आहत किया था कि वो जहां जाना चाहें जायें. पर राजस्थान में तो अपमान की ऐतिहासिक इंतिहा हो गयी. जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने ही उपमुख्यमंत्री को पार्टी विरोध का नोटिस पुलिस से दिलवा दिया. ऐसा महसूस हुआ कि गहलोत को अब जैसे सोनिया गांधी की अप्रसन्नता की भी विशेष परवाह नहीं है। कांग्रेस हाईकमान चाहती तो राजस्थान में गहलोत-पायलट लाग डांट को सुलझाने के लिये दोनों नेताओं का दिल्ली और जयपुर में इस्तेमाल कर सकती थी. गहलोत का अनुभव राजस्थान के काम आता रहता और सचिन का जोश दिल्ली में नेत्रित्व का सहारा बन जाता. इसमें कोई शक नहीं कि हाल के वर्षों में सचिन एक बेहद संभावनाशील युवा नेता के रूप में उभर कर सामने आये हैं. केन्द्रीय मंत्री और राजस्थान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के बतौर उन्होंने भाजपा को टक्कर देने की काबिलियत का शानदार प्रदर्शन किया है. बल्कि राहुल और प्रियंका दोनों से वो ज्यादा काबिल नेता नज़र आये हैं और उन्हें पसंद करने वालों की संख्या काफी है। पर उनकी यही विशेषता शायद उनके खिलाफ चली गयी. बुजुर्ग कांग्रेसियों में खौफ तो इसी बात का है कि ये यूथ पॉवर चमक गयी तो एक तो उनका वनवास हो जायेगा दूसरे उनके वारिसों का क्या होगा जिन्हें वो पार्टी में समायोजित करने का सपना पाले बैठे हों. चाहे वो दिग्विजय सिंह के बेटे कीर्ति वर्धन हों या अशोक गहलोत के बेटे हों या कमलनाथ, भूपेन्द्र सिंह हूडा, गोगोई के बेटे हों. उनका यही स्वार्थ कांग्रेस में बहुप्रतीक्षित पीढीगत परिवर्तन को रोके हुए है और एक एक करके संभावनाशील युवा निराश होकर अलग राह पर चले जाने को मजबूर हैं. ये भी हो सकता है कि हाई कमान सोनिया राहुल या प्रियंका की टीम के लिए सौ परसेंट वफ़ादारी की परीक्षा ले रहीं हो. ऐसे किसी भी मोहरे को वो अभी से निपटा देना चाहतीं हो जो भविष्य में उनके वारिसों को रंचमात्र भी चुनौती दे सकने की हैसियत रखता हो. ज्योतिरादित्य और सचिन के पिताओं का निधन जिन परिस्थितियों के निर्माण यानी कांग्रेस अध्यक्ष पद की दावेदारी के बाद रहस्यमय तरीके से हुआ. उसके बाद से वे दोनों राहुल के करीब जरूर रहे पर माँ सोनिया की निगाह में लाल घेरे में तो रहे ही होंगे. बहरहाल परिवार के बाहर कांग्रेस के पास मौजूद काबिल हाथों को अगर सही तरीके से काम न मिला और कांग्रेस नही जागी तो कपिल सिब्बल के शब्दों में वो दिन दूर नहीं जब अस्तबल से सारे युवा घोड़े निकल जायेंगे.

Published: 14-07-2020

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