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क्या इस बार फिर केजरीवाल

विकल्प शर्मा : नयी दिल्ली : नये वर्ष की शुरुआत देश की राजधानी दिल्ली से सियासी दंगल से हो सकती है. यहाँ विधानसभा चुनाव के लिए बिसात बिछ चुकी है. 2015 विधानसभा चुनाव में अरविन्द केजरीवाल की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी ने ऐतिहासिक जीत हासिल की थी. आम

क्या इस बार फिर केजरीवाल
क्या इस बार फिर केजरीवाल
विकल्प शर्मा : नयी दिल्ली : नये वर्ष की शुरुआत देश की राजधानी दिल्ली से सियासी दंगल से हो सकती है. यहाँ विधानसभा चुनाव के लिए बिसात बिछ चुकी है. 2015 विधानसभा चुनाव में अरविन्द केजरीवाल की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी ने ऐतिहासिक जीत हासिल की थी. आम आदमी पार्टी राज्य की 70 विधानसभा सीटों में से 67 सीटों पर जीती थी. बाकी तीन सीटें भाजपा ने जीती थी. कांग्रेस खाता भी नहीं खोल पाई थी. अब भाजपा झारखण्ड का बदला लेने के लिए उतरेगी तो कांग्रेस अपना खोया हुआ जनाधार पाने के लिए. इन दोनों के बीच अरविन्द केजरीवाल आम चुनाव में करारी हार के बाद यह साबित करने उतरेंगे कि दिल्ली की स्थानीय राजनीति पर उनकी पकड़ कम नहीं हुई है. इनके बीच होने वाले इस चुनाव का असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी पड़ेगा. दिल्ली में 8 फरवरी को एक ही चरण में वोट पडेंगे. अरविन्द केजरीवाल के लिए दिल्ली विधानसभा खुद उनके और पार्टी के लिए अस्तित्व की लड़ाई है. यह दोनों के लिए आगे की राह तय करेगी जिसका राष्ट्रीय राजनीति से सरोकार हो सकता है. 2014 में दिल्ली में बेहतर प्रदर्शन करने के बाद अरविन्द केजरीवाल की वृहत्तर राष्ट्रीय राजनीति में उतरने की हसरत सामने आई. वे 2014 के चुनाव में उतरे और बुरी तरह से बिफल हुये. 2015 में दिल्ली के चुनाव ऐतिहासिक रूप से जीतने के बाद दोबारा उनकी यह हसरत सामने आई और आम आदमी पार्टी पंजाब विधानसभा सहित कई राज्यों में उतरी. पंजाब में तो पार्टी ने कुछ चुनौती दी परन्तु दूसरे प्रदेशों में विस्तार की उसकी योजना पूरी तरह से बिफल रही. इन सबके बीच दिल्ली एम.सी.डी. चुनाव में आम आदमी पार्टी की करारी हार हुई. इन पाँच सालों में केजरीवाल सरकार कई विवादों और आरोपों में भी घिरी. पुराने नेता पार्टी छोड़ कर चले गये. 2019 आम चुनाव में एक बार फिर आम आदमी पार्टी बुरी तरह हारी हालाँकि कहा गया कि दिल्ली की राजनीति में उनकी पकड़ बनी हुई है. अब अगर इस बार यह साबित करने में वह सफल हो गये तो एक बार फिर राष्ट्रीय राजनीति मे आने की उनकी कोशिश हो सकती है. जानकारी के अनुसार चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर को अपने साथ जोड़ने के पीछे उनकी मंशा भी यही है. हो सकता है दिल्ली मॉडल के आंकड़े, डेवलपमेंट और पाँच सालो के शासन की बदौलत वह खुद को राष्ट्रीय विकल्प के रूप में दोबारा पेश करने की कोशिश करें जिसमें उन्हें दूसरे क्षेत्रीय दलों का सहयोग मिल सकता है. लेकिन अगर दिल्ली में वह अपनी जमीन बचाने में विफल हो जाते हैं तो फिर आगे की उनकी राह कठिन हो जायेगी. इसका एहसास उन्हें भी है. यही कारण है कि पिछले एक साल से उन्होंने खुद को पूरी तरह से दिल्ली की राजनीति तक सीमित कर लिया है और अपने दिल्ली मॉडल ऑफ डेवलपमेंट की बात की जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे मुद्दों पर अपने काम गिनाये. भाजपा की भी अपनी चिंतायें हैं. आम चुनाव के बाद राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए बहुत अच्छे नहीं रहे. महाराष्ट्र में उसने सरकार गंवाई हरियाणा में उसे गठबंधन की सरकार बनानी पड़ी. अब झारखण्ड में मिली हार के बाद पार्टी दिल्ली को लेकर चिंतित है. दिल्ली का सबसे लोकप्रिय नेता केजरीवाल को बताया जा रहा है. ऐसे में स्थानीय चेहरों के अभाव में दिल्ली को यहाँ की नैया पार लगाने के लिए मोदी के रूप में महाचेहरे की ही जरूरत होगी. इसके पीछे कारण यह भी है कि दिल्ली को यह स्थानीय मुद्दों पर लड़ेगी या राष्ट्रीय मुद्दों पर. पार्टी को पता है कि पी.एम. नरेन्द्र मोदी के पूर्व निर्धारित कार्यक्रम को देखते हुए प्रचार में उन्हीं रैली के लिए समय निकालना कठिन होगा. दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी भाजपा नागरिकता संशोधन कानून को मुद्दा बनाने की कोशिश कर सकती है. वैसे अनाधिकृत कालोनियों को नियमित करने का श्रेय लेने में भी भाजपा आम आदमी पार्टी से होड़ लगा रही है. वह कोई भी मोर्चा आम आदमी के लिए नहीं छोड़ना चाह रही. उसे पता है कि दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम बाकी राज्यों में धारणा को बना या बिगाड़ सकते हैं. 2015 में भी ऐसा ही हुआ था तब दिल्ली में भाजपा हारी और साल के अंत में बिहार हारी थी. उधर दिल्ली चुनाव कांग्रेस के लिए एक बार फिर से नई चुनौती लायेंगे. सालों बाद कांग्रेस शीला दीक्षित के बिना दिल्ली में उतरेगी. पार्टी पिछले कुछ चुनावों में यहां नम्बर तीन पर जा चुकी है. गुटबाजी और दिशाहीनता पार्टी को नुकसान दे चुकी है. इस बार कांग्रेस दिल्ली चुनाव में सन्देश देना चाहेगी कि उसे खारिज नहीं किया जा सकता लेकिन अगर वह भाजपा और आम आदमी पार्टी के बीच जगह नहीं बना पाई तो राष्ट्रीय राजनीति में उस पर क्षेत्रीय दलों का दबाव और बढ़ जायेगा.

Published: 01-09-2020

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