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मजदूर दिवस : मजबूर दिवस 

हमारी मजदूरी में बड़े बड़ों का हिस्सा है

मजबूर दिवस 
मजबूर दिवस 

 मजदूरों के बीच,

 मजदूर दिवस,

 मनाने के लिए,

 बड़ा सा मंच बना था ।

जिस पर बड़े-बड़े ,

हार पहने हुए-

मालिकान बैठे थे.

और मजदूरों से ,

लगाव जताने के लिए ,

जरूरत से जियादः ऐठे-ऐठे थे। 

 

उन्हीं के बीच तथाकथित,

 मजदूर नेता भी मुस्करा रहे थे .

बादाम और पिस्ता खाते हुए ,

मालिकों से करीबी से बतिया रहे थे।

 

कुछ सफेदपोश मजदूर भी,

 मजदूर सभा में नगीनों की तरह,

 अग्रिम पंक्ति की ,

कुर्सियों पर जड़े थे.

उनके पीछे! बहुत पीछे ,

 तमाम सारे मजदूर भी खड़े थे!

 

जो कहने को ही सही, 

पर वे भी बुलाये गये थे. 

वैसे वे सिर्फ तालियाँ,

 बजाने के लिए लाये गये थे।

 

मैंने पास खड़े ,

एक मजदूरनुमा आदमी से पूछा- 

मंच पर बैठे हुए लोग कौन हैं? 

उसने जवाब दिया- बाबू !

 ये सब आयातित मजदूर हैं! 

हमारे लिए बेचारे!

 एयरकंडीशंड रूम से निकलकर ,वातानुकूलित 

कार से उतरकर हमारे मंच

. पर पसीना बहा रहे हैं

 हम उनके इस शौर्य पर -

खड़े-खड़े दोनों हाथों से,

तालियाँ  बजा  रहे हैं!

 

 

मैंने कहा- सुना है ताली ,

एक हाथ से नहीं बजती है 

वह बोला, बाबू। 

ये उसमें भी माहिर हैं. 

पूरे पाँच साल तक ,

मात्र एक थपकी देकर ,

पूरे देश को सुलाते हैं,

 और पाँच साल बाद ,

खीसे निकालकर,

हमारी संवेदना को ,

भुनाने के लिए फिर ,

आम आदमी का -

मुखौटा लगाकर आ जाते हैं.।

 

हम भी क्या करें ?

 हम मजदूर नहीं, मजबूर हैं!

इनके पास नोट है -

और हमारे पास एक अदद वोट है!

 

यह भारत सिर्फ कहने को,

 कृषि प्रधान देश है ।

जो किसान दिवस के बजाय,

बखूबी मजदूर दिवस मनाता है।

 और मजदूरों की मजबूरी को,

 हर साल दर साल भुनाता है। 

 

बाबू। हर आदमी ,

मजूरी चाहता है ,

पर ये तो बिना कुछ किये-

 धरे  बहुत कुछ पा जाते हैं ।

हम हाड़-तोड़ ,

मेहनत-मजूरी कर,

पसीना बहाते हैं .

छप्पर हम छाते हैं 

 महल हम ,इनके बनाते हैं ,

फिर  भी बेघर  रह जाते हैं।

 

कहने को हमारे पास भी ,

अच्छे-खासे दो मजबूत हाथ हैं,

फिर भी हम बेहाथ हैं।

 

- अनूप कुमार 

बाबू! यह एक-दो रोज का नहीं,

 हर रोज का किस्सा है .

क्योंकि हमारी मजदूरी मे -

मंचासीन सभी का हिस्सा है।

 


Published: 01-05-2024

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